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शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

ग़ज़ल : इंसाँ दुत्कारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

इंसाँ दुत्कारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में
पर पत्थर पूजे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

शब्दों से नारी की पूजा होती है लेकिन उस पर
ज़ुल्म सभी ढाये जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

नफ़रत फैलाने वाले बन जाते हैं नेता, मंत्री
पर प्रेमी मारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

दिन भर मेहनत करने वाले मुश्किल से खाना पाते
ढोंगी सब खाये जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

आँख मूँद जो करें भरोसा सच्चे भक्त कहे जाते
ज्ञानार्थी कोसे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

गली गली अंधेर मचा है फिर भी जन्नत की ख़ातिर
सारे के सारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

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