बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २
जिस्म की रंगत भले ही दूध जैसी है
रूह भी इन पर्वतों की दूध जैसी है
पर्वतों से मिल यकीं होने लगा मुझको
हर नदी की नौजवानी दूध जैसी है
छाछ, मक्खन, घी, दही, रबड़ी छुपे इसमें
पर्वतों की ज़िंदगानी दूध जैसी है
सर्दियाँ जब दूध बरसातीं पहाड़ों में
यूँ लगे सारी ही धरती दूध जैसी है
तेज़ चलने की बिमारी हो तो मत आना
वक्त लेती है पहाड़ी, दूध जैसी है
बढ़िया ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंशुक्रिया ओंकार जी
हटाएंआखरी शेर ने मुस्कान ला दी ... लाजवाब शेरों से बंधी ग़ज़ल सज्जन जी ...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया नास्वा जी
हटाएंनदी और दूध नयी उपमा सुंदर
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
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