बह्र : १२१२ ११२२ १२१२ २२
हर एक शक्ल पे देखो नकाब कितने हैं
सवाल एक है लेकिन जवाब कितने हैं
जले गर आग तो उसको सही दिशा भी मिले
गदर कई हैं मगर इंकिलाब कितने हैं
जो मेर्री रात को रोशन करे वही मेरा
जमीं पे यूँ तो रुचे माहताब कितने हैं
कुछ एक जुल्फ़ के पीछे कुछ एक आँखों के
तुम्हारे हुस्न से खाना ख़राब कितने हैं
किसी के प्यार की कीमत किसी की यारी की
न जाने आज भी बाकी हिसाब कितने हैं
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
मंगलवार, 30 जून 2015
शुक्रवार, 26 जून 2015
नवगीत : बूँद बूँद बरसो
बूँद बूँद बरसो
मत धार धार बरसो
करते हो
यूँ तो तुम
बारिश कितनी सारी
सागर से
मिल जुलकर
हो जाती सब खारी
जितना सोखे धरती
उतना ही बरसो पर
कभी कभी मत बरसो
बार बार बरसो
गागर है
जीवन की
बूँद बूँद से भरती
बरसें गर
धाराएँ
टूट फूट कर बहती
जब तक मन करता हो
तब तक बरसो लेकिन
ढेर ढेर मत बरसो
सार सार बरसो
सोमवार, 22 जून 2015
ग़ज़ल : ये प्रेम का दरिया है इसमें सारे ही कमल मँझधार हुए
बह्र : 22 22 22 22 22 22 22 22
ये प्रेम का दरिया है इसमें सारे ही कमल मँझधार हुए
याँ तैरने वाले डूब गये और डूबने वाले पार हुए
फ़न की खातिर लाखों पापड़ बेले तब हम फ़नकार हुए
पर बिकने की इच्छा करते ही पल भर में बाज़ार हुए
इंसान अमीबा का वंशज है वैज्ञानिक सच कहते हैं
दिल जितने टुकड़ों में टूटा हम उतने ही दिलदार हुये
मजबूत संगठन के दम पर हर बार धर्म की जीत हुई
मानवता के सारे प्रयास, थे जुदा जुदा, बेकार हुये
जिन चट्टानों को अपनी सख़्ती पर था ज़्यादा नाज़ यहाँ
उन चट्टानों के वंशज ही सबसे ज़्यादा सुकुमार हुये
सौ बार गले सौ बार ढले सौ बार लगे हम यंत्रों में
पर जाने क्या अशुद्धि हम में थी, बागी हम हर बार हुये
जब तक सबका कहना माना सबने कहना ही मनवाया
जब से सबको इनकार किया तबसे हम ख़ुदमुख़्तार हुये
ये प्रेम का दरिया है इसमें सारे ही कमल मँझधार हुए
याँ तैरने वाले डूब गये और डूबने वाले पार हुए
फ़न की खातिर लाखों पापड़ बेले तब हम फ़नकार हुए
पर बिकने की इच्छा करते ही पल भर में बाज़ार हुए
इंसान अमीबा का वंशज है वैज्ञानिक सच कहते हैं
दिल जितने टुकड़ों में टूटा हम उतने ही दिलदार हुये
मजबूत संगठन के दम पर हर बार धर्म की जीत हुई
मानवता के सारे प्रयास, थे जुदा जुदा, बेकार हुये
जिन चट्टानों को अपनी सख़्ती पर था ज़्यादा नाज़ यहाँ
उन चट्टानों के वंशज ही सबसे ज़्यादा सुकुमार हुये
सौ बार गले सौ बार ढले सौ बार लगे हम यंत्रों में
पर जाने क्या अशुद्धि हम में थी, बागी हम हर बार हुये
जब तक सबका कहना माना सबने कहना ही मनवाया
जब से सबको इनकार किया तबसे हम ख़ुदमुख़्तार हुये
गुरुवार, 18 जून 2015
नवगीत : पत्थर-दिल पूँजी
पत्थर-दिल पूँजी
के दिल पर
मार हथौड़ा
टूटे पत्थर
कितनी सारी धरती पर
इसका जायज़ नाजायज़ कब्ज़ा
विषधर इसके नीचे पलते
किन्तु न उगने देता सब्ज़ा
अगर टूट जाता टुकड़ों में
बन जाते
मज़लूमों के घर
मौसम अच्छा हो कि बुरा हो
इस पर कोई फ़र्क न पड़ता
चोटी पर हो या खाई में
आसानी से नहीं उखड़ता
उखड़ गया तो
कितने ही मर जाते
इसकी ज़द में आकर
छूट मिली इसको तो
सारी हरियाली ये खा जाएगा
नाज़ुक पौधों की कब्रों पर
राजमहल ये बनवाएगा
रोको इसको
वरना इक दिन
सारी धरती होगी बंजर
के दिल पर
मार हथौड़ा
टूटे पत्थर
कितनी सारी धरती पर
इसका जायज़ नाजायज़ कब्ज़ा
विषधर इसके नीचे पलते
किन्तु न उगने देता सब्ज़ा
अगर टूट जाता टुकड़ों में
बन जाते
मज़लूमों के घर
मौसम अच्छा हो कि बुरा हो
इस पर कोई फ़र्क न पड़ता
चोटी पर हो या खाई में
आसानी से नहीं उखड़ता
उखड़ गया तो
कितने ही मर जाते
इसकी ज़द में आकर
छूट मिली इसको तो
सारी हरियाली ये खा जाएगा
नाज़ुक पौधों की कब्रों पर
राजमहल ये बनवाएगा
रोको इसको
वरना इक दिन
सारी धरती होगी बंजर
शनिवार, 13 जून 2015
ग़ज़ल : पैसा जिसे बनाता है
बह्र : २२ २२ २२ २
पैसा जिसे बनाता है
उसको समय मिटाता है
यहाँ वही बच पाता है
जिसको समय बचाता है
चढ़ना सीख न पाया जो
कच्चे आम गिराता है
रोता तो वो कभी नहीं
आँसू बहुत बहाता है
बच्चा है वो, छोड़ो भी
जो झुनझुना बजाता है
चतुर वही इस जग में, जो
सबको मूर्ख बनाता है
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