बह्र : २१२२ ११२२ ११२२ २२
मैं तो नेता हूँ जो मिल जाए जिधर, खा जाऊँ
हज़्म हो जाएगा विष भी मैं अगर खा जाऊँ
कैसा दफ़्तर है यहाँ भूख तो मिटती ही नहीं
खा के पुल और सड़क मन है नहर खा जाऊँ
इसमें जीरो हैं बहुत फंड मिला जो मुझको
कौन जानेगा जो दो एक सिफ़र खा जाऊँ
भूख लगती है तो मैं सोच नहीं पाता कुछ
सोन मछली हो या हो शेर-ए-बबर, खा जाऊँ
इस मुई भूख से कोई तो बचा लो मुझको
इस से पहले कि मैं ये शम्स-ओ-क़मर खा जाऊँ
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
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कैसा दफ़्तर है यहाँ भूख तो मिटती ही नहीं
जवाब देंहटाएंखा के पुल और सड़क मन है नहर खा जाऊँ
मज़ा आ गया इस धारदार ग़ज़ल का ,.... कमाल के शेर हैं सभी ...
शुक्रिया नास्वा जी
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