नीलकंठ को अर्पित करते
बीत गया बचपन
तब जाना
है बड़ा विषैला
श्री कनेर का मन
अंग-अंग होता जहरीला
जड़ से पत्तों तक
केवल कोयल, बुलबुल, मैना
के ये हितचिंतक
जो मीठा बोलें
ये बख़्शें उनका ही जीवन
आस पास जब सभी दुखी हैं
सूरज के वारों से
विषधर जी विष चूस रहे हैं
लू के अंगारों से
छाती फटती है खेतों की
इन पर है सावन
अगर न चढ़ते देवों पर तो
नागफनी से ये भी
तड़ीपार होते समाज से
बनते मरुथल सेवी
धर्म ओढ़कर बने हुए हैं
सदियों से पावन
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
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बुधवार, 20 मई 2015
सोमवार, 18 मई 2015
नवगीत : सबको शीश झुकाता है
बहुत बड़ा
परिवार मिला
पर सबका साथ निभाता है
इसीलिए तो
बाँस-काफ़िला
आसमान तक जाता है
एक वर्ष में
लगें फूल या
साठ वर्ष के बाद लगें
जब भी
फूल लगें इसमें
सारे कुटुम्ब के साथ लगें
सबसे तेज़ उगो तुम
यह वर
धरती माँ से पाता है
झुग्गी, मंडप
इस पर टिकते
बने बाँसुरी, लाठी भी
कागज़, ईंधन
शहतीरें भी
डोली भी है अर्थी भी
सबसे इसकी
यारी है
ये काम सभी के आता है
घास भले है
लेकिन
ज़्यादातर वृक्षों से ऊँचा है
दुबला पतला है
पर लोहे से लोहा
ले सकता है
सीना ताने
खड़ा हुआ पर
सबको शीश झुकाता है
शनिवार, 16 मई 2015
ग़ज़ल : मैं तो नेता हूँ जो मिल जाए जिधर, खा जाऊँ
बह्र : २१२२ ११२२ ११२२ २२
मैं तो नेता हूँ जो मिल जाए जिधर, खा जाऊँ
हज़्म हो जाएगा विष भी मैं अगर खा जाऊँ
कैसा दफ़्तर है यहाँ भूख तो मिटती ही नहीं
खा के पुल और सड़क मन है नहर खा जाऊँ
इसमें जीरो हैं बहुत फंड मिला जो मुझको
कौन जानेगा जो दो एक सिफ़र खा जाऊँ
भूख लगती है तो मैं सोच नहीं पाता कुछ
सोन मछली हो या हो शेर-ए-बबर, खा जाऊँ
इस मुई भूख से कोई तो बचा लो मुझको
इस से पहले कि मैं ये शम्स-ओ-क़मर खा जाऊँ
मैं तो नेता हूँ जो मिल जाए जिधर, खा जाऊँ
हज़्म हो जाएगा विष भी मैं अगर खा जाऊँ
कैसा दफ़्तर है यहाँ भूख तो मिटती ही नहीं
खा के पुल और सड़क मन है नहर खा जाऊँ
इसमें जीरो हैं बहुत फंड मिला जो मुझको
कौन जानेगा जो दो एक सिफ़र खा जाऊँ
भूख लगती है तो मैं सोच नहीं पाता कुछ
सोन मछली हो या हो शेर-ए-बबर, खा जाऊँ
इस मुई भूख से कोई तो बचा लो मुझको
इस से पहले कि मैं ये शम्स-ओ-क़मर खा जाऊँ
मंगलवार, 12 मई 2015
कविता : प्रेम (सात छोटी कविताएँ)
(१)
तुम्हारा शरीर
रेशम से बुना हुआ
सबसे मुलायम स्वेटर है
मेरा प्यार उस सिरे की तलाश
है
जिसे पकड़कर खींचने पर
तुम्हारा शरीर धीरे धीरे अस्तित्वहीन
हो जाएगा
और मिल सकेंगे हमारे प्राण
(२)
तुम्हारे होंठ
ओलों की तरह गिरते हैं मेरे
बदन पर
जहाँ जहाँ छूते हैं
ठंडक और दर्द का अहसास एक साथ
होता है
फिर तुम्हारे प्यार की
माइक्रोवेव
इतनी तेजी से गर्म करती है मेरा
ख़ून
कि मेरा अस्तित्व कार की
विंडस्क्रीन की तरह
एक पल में टूटकर बिखर जाता है
(३)
तुम्हारे प्यार की बारिश
मेरे आसपास के वातावरण में ही
नहीं
मेरे फेफड़ों में भी नमी की
मात्रा बढ़ा देती है
हरा रंग बगीचे में ही नहीं
मेरी आँखों में भी उग आता है
कविताएँ कागज़ पर ही नहीं
मेरी त्वचा पर भी उभरने लगती
हैं
बूदों की चोट तुम्हारे
मुक्कों जैसी है
मेरा तन मन भीतर तक गुदगुदा
उठता है
(४)
तुम्हारा प्यार
विकिरण की तरह समा जाता है
मुझमें
और बदल देता है मेरी आत्मा की
संरचना
आत्मा को कैंसर नहीं होता
(५)
प्यार में
मेरे शरीर का हार्मोन
तुम्हारे शरीर में बनता है
और तुम्हारे शरीर का हार्मोन
मेरे शरीर में
इस तरह न तुम स्त्री रह जाती
हो
न मैं पुरुष
हम दोनों प्रेमी बन जाते हैं
(६)
पहली बारिश में
हवा अपनी अशुद्धियों को भी मिला
देती है
प्रेम की पहली बारिश में मत
भीगना
उसे दिल की खिड़की खोलकर देखना
जी भर जाने तक
आँख भर आने तक
(७)
प्रेम अगर शराब नहीं है
तो गंगाजल भी नहीं है
प्रेम इन दोनों का सही अनुपात
है
जो पीनेवाले की सहनशीलता पर
निर्भर है
बुधवार, 6 मई 2015
ग़ज़ल : गरीबी ख़ून देकर भी अमीरी को बचाती है
बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
अमीरी बेवफ़ा मौका मिले तो छोड़ जाती है
गरीबी बावफ़ा आकर कलेजे से लगाती है
भरा हो पेट जिसका ठूँस कर उसको खिलाती, पर
जो भूखा हो अमीरी भी उसे भूखा सुलाती है
अमीरी का दिवाला भर निकलता है यहाँ लेकिन
गरीबी ऋण न चुकता कर सके तो जाँ गँवाती है
अमीरी छू के इंसाँ को बना देती है पत्थर सा
गरीबी पत्थरों को गढ़ उन्हें रब सा बनाती है
ये दोनों एक माँ की बेटियाँ हैं इसलिए ‘सज्जन’
गरीबी ख़ून देकर भी अमीरी को बचाती है