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गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

नवगीत : चंचल नदी बाँध के आगे

चंचल नदी
बाँध के आगे
फिर से हार गई
बोला बाँध
यहाँ चलना है
मन को मार, गई

टेढ़े चाल चलन के
उस पर थे
इल्ज़ाम लगे
उसकी गति में
थी जो बिजली
उसके दाम लगे

पत्थर के आगे
मिन्नत सब
हो बेकार गई

टूटी लहरें
छूटी कल कल
झील हरी निकली
शांत सतह पर
लेकिन भीतर
पर्तों में बदली

सदा स्वस्थ
रहने वाली
होकर बीमार गई

अपनी राहें
ख़ुद चुनती थी
बँधने से पहले
अब तो सब से
पूछ रही है
रुक जाए, बह ले

आजीवन फिर
उसी राह से
हो लाचार, गई

18 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर नवगीत ... चंचल नदी की लाचारी .... बहुत लाजवाब ...

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  2. आपका ब्लॉग मुझे बहुत अच्छा लगा, और यहाँ आकर मुझे एक अच्छे ब्लॉग को फॉलो करने का अवसर मिला. मैं भी ब्लॉग लिखता हूँ, और हमेशा अच्छा लिखने की कोशिस करता हूँ. कृपया मेरे ब्लॉग पर भी आये और मेरा मार्गदर्शन करें.

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    जवाब देंहटाएं
  3. सज्जन धर्मेन्द्र,
    बहुत अच्छी रचना keep it up god bless
    थैंक्स

    जवाब देंहटाएं

जो मन में आ रहा है कह डालिए।