चंचल नदी
बाँध के आगे
फिर से हार गई
बोला बाँध
यहाँ चलना है
मन को मार, गई
टेढ़े चाल चलन के
उस पर थे
इल्ज़ाम लगे
उसकी गति में
थी जो बिजली
उसके दाम लगे
पत्थर के आगे
मिन्नत सब
हो बेकार गई
टूटी लहरें
छूटी कल कल
झील हरी निकली
शांत सतह पर
लेकिन भीतर
पर्तों में बदली
सदा स्वस्थ
रहने वाली
होकर बीमार गई
अपनी राहें
ख़ुद चुनती थी
बँधने से पहले
अब तो सब से
पूछ रही है
रुक जाए, बह ले
आजीवन फिर
उसी राह से
हो लाचार, गई
Beautiful Creation ......
जवाब देंहटाएंThanks !
शुक्रिया मनोज जी
हटाएंबहुत सुन्दर नवगीत,,,
जवाब देंहटाएंशुक्रिया कृष्ण नन्दन जी
हटाएंबहुत अच्छा-नई सोच- बधाई
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आदरणीय आनन्द पाठक जी
हटाएंबहुत बढ़िया सर।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंbahut hi badhiya
जवाब देंहटाएंशुक्रिया अनामिका जी
हटाएंबहुत सुन्दर नवगीत ... चंचल नदी की लाचारी .... बहुत लाजवाब ...
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया नासवा जी
हटाएंबहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंशुक्रिया ओंकार जी
हटाएंआपका ब्लॉग मुझे बहुत अच्छा लगा, और यहाँ आकर मुझे एक अच्छे ब्लॉग को फॉलो करने का अवसर मिला. मैं भी ब्लॉग लिखता हूँ, और हमेशा अच्छा लिखने की कोशिस करता हूँ. कृपया मेरे ब्लॉग पर भी आये और मेरा मार्गदर्शन करें.
जवाब देंहटाएंhttp://hindikavitamanch.blogspot.in/
http://kahaniyadilse.blogspot.in
शुक्रिया ऋषभ जी
हटाएंसज्जन धर्मेन्द्र,
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना keep it up god bless
थैंक्स
शुक्रिया जनाब
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