बह्र : २१२ २१२ २१२ २१२
ज़ुल्फ़ का घन घुमड़ता रहा रात भर
बिजलियों से मैं लड़ता रहा रात भर
घाव ठंडी हवाओं से दिनभर मिले
जिस्म तेरा चुपड़ता रहा रात भर
जिस्म पर तेरे हीरे चमकते रहे
मैं भी जुगनू पकड़ता रहा रात भर
पी लबों से, गिरा तेरे आगोश में
मुझ पे संयम बिगड़ता रहा रात भर
जिस भी दिन तुझसे अनबन हुई जान-ए-जाँ
आ के ख़ुद से झगड़ता रहा रात भर
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है
शुक्रिया मनोज जी
हटाएंजिस भी दिन तुझसे अनबन हुई जान-ए-जाँ
जवाब देंहटाएंआ के ख़ुद से झगड़ता रहा रात भर ..
बहुत लाजवाब शेर .... हकीकत बयान कर दी धर्मेन्द्र जी ... ऐसा ही होता है अक्सर ...
बहुत बहुत शुक्रिया नासवा जी
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