बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २
माना मिट जाते हैं अक्षर कलम नहीं मिटती
मारो बम गोली या पत्थर कलम नहीं मिटती
जितने रोड़े आते उतना ज़्यादा चलती है
लुटकर, पिटकर, दबकर, घुटकर कलम नहीं मिटती
इसे मिटाने की कोशिश करते करते इक दिन
मिट जाते हैं सारे ख़ंजर कलम नहीं मिटती
पंडित, मुल्ला और पादरी सब मिट जाते हैं
मिट जाते मज़हब के दफ़्तर कलम नहीं मिटती
जब से कलम हुई पैदा सबने ये देखा है
ख़ुदा मिटा करते हैं अक़्सर कलम नहीं मिटती
कलम को मिटाना आसान नहीं ... लाजवाब शेर और कमाल की ग़ज़ल ...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया नास्वा जी
हटाएंबहुत शानदार ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मदन सक्सेना जी
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