पृष्ठ

शनिवार, 13 सितंबर 2014

ग़ज़ल : चीथड़ों को कचरे सा कोठियाँ समझती हैं

बह्र : 212 1222 212 1222 (फाइलुन मुफाईलुन फाइलुन मुफाईलुन)
------
सूट बूट को नायक झुग्गियाँ समझती हैं
चीथड़ों को कचरे सा कोठियाँ समझती हैं

आरियों के दाँतों को पल में तोड़ देता है
पत्थरों की कोमलता छेनियाँ समझती हैं

है लिबास उजला पर दूध ने दही बनकर
घी कहाँ छुपाया है मथनियाँ समझती हैं

सर्दियों की ख़ातिर ये गुनगुना तमाशा भर
धूप जानलेवा है गर्मियाँ समझती हैं

कोठियों के भीतर तक ये पहुँच न पायें पर
है कहाँ छुपी शक्कर चींटियाँ समझती हैं

6 टिप्‍पणियां:

  1. bahut sundar gajal aa. dharmendra ji waah bahut khoob
    सर्दियों की ख़ातिर ये गुनगुना तमाशा भर
    धूप जानलेवा है गर्मियाँ समझती हैं

    कोठियों के भीतर तक ये पहुँच न पायें पर
    है कहाँ छुपी शक्कर चींटियाँ समझती हैं

    जवाब देंहटाएं
  2. आरियों के दाँतों को पल में तोड़ देता है
    पत्थरों की कोमलता छेनियाँ समझती हैं
    Waah ... Lajwab sher hai ... Khoobsoorat bahar ka ...

    जवाब देंहटाएं

जो मन में आ रहा है कह डालिए।