बह्र : फ़ऊलुन फ़ाइलातुन मफ़ाईलुन
फ़ऊलुन (122 2122 122 2122)
प्रबंधन का भी उसको, सलीका हो गया है
ख़ुदा सा सर्वव्यापी, दरिंदा
हो गया है
सियासत का है जादू, परिंदों का शिकारी
लगाकर पंख उनके, फरिश्ता हो गया है
मैं सच की रहगुज़र हूँ, कहें तीनों ही राहें
बड़ा भ्रामक वतन का, तिराहा हो गया है
प्रदूषण का असर है, या ए.सी. का करिश्मा
हमारा खून सारा, लसीका हो गया है
हरा भगवा ही केवल, बचे हैं आज इसमें
तिरंगा था कभी जो, दुरंगा हो गया है
बहुत बढिया
जवाब देंहटाएंशुक्रिया ओंकार जी
हटाएंबहुत खूब गजल! हर शेअर आला!
जवाब देंहटाएंबधाई!
बहुत बहुत शुक्रिया गीतिका जी
हटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट की चर्चा, रविवार, दिनांक :- 24/08/2014 को "कुज यादां मेरियां सी" :चर्चा मंच :चर्चा अंक:1715 पर.
बहुत बहुत धन्यवाद राजीव जी
हटाएंहर छंद सार्थक !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया प्रतिभा जी
हटाएंबढ़िया व खूबसूरत , सज्जन भाई धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंअगर संभव हो तो -
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बहुत बहुत शुक्रिया आशीष जी
हटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया प्रतिभा जी
हटाएंhar sher lajawaab....bahut hi umda gazal...
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया परी जी
हटाएंप्रदूषण का असर है, या ए.सी. का करिश्मा
जवाब देंहटाएंहमारा खून सारा, लसीका हो गया है
बहुत खूब कही ग़ज़ल खूब कही।
बहुत बहुत धन्यवाद शर्मा जी
हटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सुमन जी
जवाब देंहटाएंहरा भगवा ही केवल, बचे हैं आज इसमें
जवाब देंहटाएंतिरंगा था कभी जो, दुरंगा हो गया है ..
बहुत खूब ... अभि तो ६५ साल ही हुए हैं तिरंगे से दुरंगा हुआ है ... ऐसे ही देश का चलन रहा तो बदरंगा न हो जाएँ ... लाजवाब शेर ...
बहुत बहुत शुक्रिया नासवा साहब
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