मेघ श्वेत श्याम कह रहे
आसमाँ
अधेड़ हो गया
कोशिशें हजार कीं मगर
रेत पर बरस नहीं सका
जब चली जिधर चली हवा
मेघ साथ ले गई सदा
बारहा यही हुआ मगर
इन्द्र ने
कभी न की दया
सागरों का दोष कुछ नहीं
वायु है गुलाम सूर्य की
स्वप्न ही रही समानता
उम्र बीतती चली गई
एक ही बचा है रास्ता
सूर्य
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यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
शुक्रवार, 25 जुलाई 2014
सोमवार, 21 जुलाई 2014
ग़ज़ल : ज्ञान थोड़ा बयान ज़्यादा है
आजकल ये रुझान ज़्यादा है
ज्ञान थोड़ा बयान ज़्यादा है
है मिलावट, फ़रेब, लूट यहाँ
धर्म कम है दुकान ज्यादा है
चोट दिल पर लगी, चलो, लेकिन
देश अब सावधान ज़्यादा है
दूध पानी से मिल गया जब से
झाग थोड़ा उफ़ान ज़्यादा है
पाँव भर ही ज़मीं मिली मुझको
पर मेरा आसमान ज़्यादा है
ये नई राजनीति है ‘सज्जन’
काम थोड़ा बखान ज़्यादा हैबुधवार, 9 जुलाई 2014
ग़ज़ल : जाल सहरा पे डाले गए
जाल
सहरा पे डाले गए
यूँ
समंदर खँगाले गए
रेत
में धर पकड़ सीपियाँ
मीन
सारी बचा ले गए
जो
जमीं ले गए हैं वही
सूर्य,
बादल,
हवा
ले गए
सर
उन्हीं के बचे हैं यहाँ
वक्त
पर जो झुका ले गए
मैं
चला जब तो चलता गया
फूट
कर खुद ही छाले गए
जानवर
बन गए क्या हुआ
धर्म
अपना बचा ले गए
खुद
को मालिक समझते थे वो
अंत
में जो निकाले गए
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