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शुक्रवार, 2 मई 2014

कविता : पूँजीवादी मशीनरी का पुर्ज़ा

मैं पूँजीवादी मशीनरी का चमचमाता हुआ पुर्ज़ा हूँ

मेरे देश की शिक्षा पद्धति ने
मेरे भीतर मौजूद लोहे को वर्षों पहले पहचान लिया था
इसलिए जल्द ही सुनहरे सपनों के चुम्बक से खींचकर
मुझे मेरी जमीन से अलग कर दिया गया

अध्यापकों ने कभी डरा-धमका कर तो कभी बहला-फुसला कर
मेरी अशुद्धियों को दूर किया
अशुद्धियाँ जैसे मिट्टी, हवा और पानी
जो मेरे शरीर और मेरी आत्मा का हिस्सा थे

तरह तरह की प्रतियोगिताओं की आग में गलाकर
मेरे भीतर से निकाल दिया गया भावनाओं का कार्बन
(वही कार्बन जो पत्थर और इंसान के बीच का एक मात्र फर्क़ है)

मुझमें मिलाया गया तरह तरह की सूचनाओं का क्रोमियम
ताकि हवा, पानी और मिट्टी
मेरी त्वचा तक से कोई अभिक्रिया न कर सकें

अंत में मूल वेतन और मँहगाई भत्ते से बने साँचे में ढालकर
मुझे बनाया गया सही आकार और सही नाप का

मैं अपनी निर्धारित आयु पूरी करने तक
लगातार, जी जान से इस मशीनरी की सेवा करता रहूँगा
बदले में मुझे इस मशीनरी के
और ज्यादा महत्वपूर्ण हिस्सों में काम करने का अवसर मिलेगा

मेरे बाद ठीक मेरे जैसा एक और पुर्जा आकर मेरा स्थान ले लेगा

मैं पूँजीवादी मशीनरी का चमचमाता हुआ पुर्ज़ा हूँ
मेरे लिए इंसान में मौजूद कार्बन
ऊर्जा का स्रोत भर है।

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