बुधवार, 2 अक्टूबर 2013

ग़ज़ल : जब से तू निकली दिल से हम सरकारी आवास हो गये

बह्र : मुस्तफ़्फैलुन मुस्तफ़्फैलुन मुस्तफ़्फैलुन मुस्तफ़्फैलुन
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जुड़ो जमीं से कहते थे जो वो खुद नभ के दास हो गये
आम आदमी की झूठी चिन्ता थी जिनको, खास हो गये

सबसे ऊँचे पेड़ों से भी ऊँचे होकर बाँस महोदय
आरक्षण पाने की खातिर सबसे लम्बी घास हो गये

तन में मन में पड़ीं दरारें, टपक रहा आँखों से पानी
जब से तू निकली दिल से हम सरकारी आवास हो गये

बात शुरू की थी अच्छे से सबने खूब सराहा भी था
लेकिन सबकुछ कह देने के चक्कर में बकवास हो गये

ऐसे डूबे आभासी दुनिया में हम सब कुछ मत पूछो
नाते, रिश्ते और दोस्ती सबके सब आभास हो गये

शब्द पुराने, भाव पुराने रहे ठूँसते हर मिसरे में
कायम रहे रवायत इस चक्कर में हम इतिहास हो गये

5 टिप्‍पणियां:

  1. सबसे ऊँचे पेड़ों से भी ऊँचे होकर बाँस महोदय
    आरक्षण पाने की खातिर सबसे लम्बी घास हो गये ..

    बहुत ही लाजवाब सज्जन जी ... क्या कमाल का शेर है ... करार तमाचा है कुछ लोगों की फितरत पे ...

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  2. बिलकुल आप के अंदाज़ की बहुत अच्छी ग़ज़ल, यह शेर बहुत पसंद आया

    तन में मन में पड़ीं दरारें, टपक रहा आँखों से पानी
    जब से तू निकली दिल से हम सरकारी आवास हो गये

    इस ग़ज़ल की बह्र / मीटर शायद
    फालुन फालुन फालुन फालुन फालुन फालुन फालुन फालुन होनी चाहिए
    मुस्तफ़इलुन बह्रेरजज का रुक्न है जिसका पदभार 2122 होता है

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  3. kya kah dala my dear dost dil pe aa gayi yaar

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