बह्र
: २२१ २१२१ १२२१ २१२
मिलजुल
के जब कतार में चलती हैं चींटियाँ
महलों
को जोर शोर से खलती हैं चींटियाँ
मौका
मिले तो लाँघ ये जाएँ पहाड़ भी
तीखी
ढलान पर न फिसलती हैं चींटियाँ
आँचल
न माँ का सर पे न साया है बाप का
जीवन
की तेज धूप में पलती हैं चींटियाँ
चलना
सँभल के, राह में जाएँ न ये कुचल
खाने
कमाने रोज निकलती हैं चींटियाँ
शायद
कहीं मिठास है मुझमें बची हुई
अक्सर
मेरे बदन पे टहलती हैं चींटियाँ
बहुत बढ़िया ग़ज़ल रचना
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