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रविवार, 7 जुलाई 2013

कविता : परिभाषाएँ

बिंदु में लंबाई, चौड़ाई और मोटाई नहीं होती
बना दो इससे गदा को गंदा, चपत को चंपत
जग को जंग, दगा को दंगा मद को मंद
मदिर को मंदिर, रज को रंज, वश को वंश
बजर को बंजर
कोई सवाल करे तो कह देना
ये बिंदु नहीं हैं
ये तो डॉट हैं जो हाथ हिलने से गलत जगह लग गए

केवल लंबाई होती है रेखा में
चौड़ाई और मोटाई नहीं होती
खींच दो गरीबी रेखा जहाँ तुम्हारी मर्जी हो
कोई उँगली उठाये तो कह देना ये गरीबी रेखा नहीं है
ये तो डैश है जो थोड़ा लंबा हो गया है

शब्दों और परिभाषाओं से
अच्छी तरह खेलना आता है तुम्हें
तभी तो पहुँच पाये हो तुम देश के सर्वोच्च पदों पर

मगर कब तक छुपाओगे
अपने कुकर्म परिभाषाओं के पीछे
एक न एक दिन तो जनता समझ ही जाएगी
कि कुछ भी बदलने के लिए सबसे पहले जरूरी है परिभाषाएँ बदलना

तब जब ये आयातित डाट और डैश जैसे चिह्न
हम निकाल फेंकेंगे अपनी भाषा से
तब जब बिंदु होगा लेखनी से न्यूनतम संभव
लंबाई, चौड़ाई और मोटाई वाला
रेखा होगी न्यूनतम संभव चौड़ाई और मोटाई वाली
तब कहाँ छुपोगे
ओ परिभाषाओं के पीछे छुपकर बैठने वालों

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