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बुधवार, 19 सितंबर 2012

क्यूँ मैंने ताड़ा नहीं, हुई पड़ोसन रुष्ट (दो कुंडलिया छंद)


बर्तन बतियाने लगे, छूकर तेरे हाथ
चूल्हा मुस्काने लगा, पाकर तेरा साथ
पाकर तेरा साथ जवान हो गए कपड़े
पाया इतना काम मिटे झाड़ू के नखड़े
दीवारें घर बनीं तुम्हीं से कहता ‘सज्जन’
कवि भी अब इंसान बना कहते सब बर्तन

क्यूँ मैंने ताड़ा नहीं, हुई पड़ोसन रुष्ट
लेकिन फिर भी शक करे, मूढ़ पड़ोसी दुष्ट
मूढ़ पड़ोसी दुष्ट न इतना भी पहचाने
वो कविता है और कि जिसके हम दीवाने
कविता नामक नार लगे आलू बोरी ज्यूँ
तिस पर होती रुष्ट नहीं ताड़ा मैंने क्यूँ

1 टिप्पणी:

  1. ताड़ा नहीं पड़ोसन को, बच्‍चू गये हो बच,
    देखो अपनी कूव्‍वत को, हो जाओगे बुच्‍च,
    'मेरिट' वाले हो 'कारीगर', फिसल न जाना चट्टानों पर,
    उड़ जा यह सूना निर्झर है, पंख ठोंक के अरमानों पर।
    मा....मा...हा...हा...।

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