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गुरुवार, 27 सितंबर 2012

नवगीत : टेसू के फूलों के भारी हैं पाँव


टेसू के फूलों के
भारी हैं पाँव

रूप दिया
प्रभु ने पर
गंध नहीं दी
पत्ते भी
छीन लिए
धूप ने सभी

सूरज अब मर्जी से
खेल रहा दाँव

मंदिर में
जगह नहीं
मस्जिद अनजान
घर बाहर
ग्राम नगर
करते अपमान

नहीं मिली छुपने को
पत्ती भर छाँव

रँग अपना
देने को
पिसते हैं रोज
फूलों सा
इनका मन
भूले सब लोग

जंगल की आग कहें
सभ्य शहर गाँव

बुधवार, 19 सितंबर 2012

क्यूँ मैंने ताड़ा नहीं, हुई पड़ोसन रुष्ट (दो कुंडलिया छंद)


बर्तन बतियाने लगे, छूकर तेरे हाथ
चूल्हा मुस्काने लगा, पाकर तेरा साथ
पाकर तेरा साथ जवान हो गए कपड़े
पाया इतना काम मिटे झाड़ू के नखड़े
दीवारें घर बनीं तुम्हीं से कहता ‘सज्जन’
कवि भी अब इंसान बना कहते सब बर्तन

क्यूँ मैंने ताड़ा नहीं, हुई पड़ोसन रुष्ट
लेकिन फिर भी शक करे, मूढ़ पड़ोसी दुष्ट
मूढ़ पड़ोसी दुष्ट न इतना भी पहचाने
वो कविता है और कि जिसके हम दीवाने
कविता नामक नार लगे आलू बोरी ज्यूँ
तिस पर होती रुष्ट नहीं ताड़ा मैंने क्यूँ

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

विज्ञान के विद्यार्थी की प्रेम कविता - 7


शब्द तुम्हारे प्रति मेरे प्रेम के अनंततम सूक्ष्म हिस्से को भी व्यक्त नहीं कर सकते
मेरे होंठों को इजाजत दो
वो लिखेंगे तुम्हारी त्वचा पर मेरे प्रेम की भूमिका

भाषा कोई भी हो
दो शब्दों के बीच दूरी न हो तो वो अर्थहीन हो जाते हैं
ये तीन दूर दूर बैठे शब्द क्या व्यक्त करेंगे प्रेम को
ये तो एक दूसरे को छूने से भी डरते हैं

प्रेम तब भी था जब शब्द नहीं थे
प्रेम वो भी करते हैं जिनके पास शब्द नहीं होते
प्रेम का शब्दों से कोई संबंध नहीं होता

तुमको छूकर मैं अपने कुछ इलेक्ट्रॉन तुम्हें दे देता हूँ
और तुमसे तुम्हारे कुछ इलेक्ट्रॉन ले लेता हूँ
इन्हीं इलेक्ट्रॉनों पर लिखा होता है शब्दहीन प्रेम

बाकी सारे शब्द, सारे वाक्य, सारी भाषाएँ, सारे अर्थ
बुद्धिमानों द्वारा प्रेम के नाम पर छल करने के लिए बनाए गए हैं

सुनो! जरा सावधान रहना
प्रेम के मामले में कानों से नहीं त्वचा से सुनना

मंगलवार, 11 सितंबर 2012

ग़ज़ल : जुबाँ मिली फिर भी कब कुछ कह पाता है जूता


जुबाँ मिली फिर भी कब कुछ कह पाता है जूता
इसीलिए पैरों से रौंदा जाता है जूता

शुरुआती विरोध कुछ दिन ही टिकता इसीलिए
फट जाने तक पैरों में फिट आता है जूता

पाँव पकड़ने की आदत जब लग जाती इसको
आजीवन फिर मैल पाँव की खाता है जूता

ईश्वर के चरणों की इज्जत बचा रहा फिर भी
मंदिर के बाहर ही रक्खा जाता है जूता

वफ़ादार कितना भी हो सब देते फेंक इसे
जैसे ही कुछ कहने को मुँह बाता है जूता

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

विज्ञान के विद्यार्थी की प्रेम कविता - 6


यार स्पिरिट लैंप ये बता
जब वो तेरे पास खड़ी होकर साँस लेती है
तब भी तेरी लौ हिलती तक नहीं
इतना नियंत्रण कैसे रखता है तू खुद पर

परखनली तू कैसे झेलती है
उसकी उँगलियों में हो रहा कंपन
अनुनादित होना तो दूर तू तो आवाज तक नहीं निकालती

अबे व्हीट स्टोन ब्रिज
उसके सामने भी
तेरा प्रतिरोध वैसे का वैसा कैसे बना रहता है

जरा एसीटोन को देखो
उसके हाथों पर गिरा फिर भी आग नहीं पकड़ी

मैं भी तो उन्हीं तत्वों से बना हूँ
जिनसे ये प्रयोगशाला भरी पड़ी है
फिर भी उसके आने पर मेरी हालत खराब हो जाती है
आखिर ये माजरा क्या है?

सोमवार, 3 सितंबर 2012

विज्ञान के विद्यार्थी की प्रेम कविता - 5

लगता है विज्ञान के विद्यार्थी की प्रेम कविताओं की एक श्रृंखला ही बनानी पड़ेगी। पेश है अगली कविता।

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‘ऋण’
मुझमें से तुमको घटा नहीं सका
‘धन’
तुमको मुझसे जोड़ नहीं सका
‘घात’
से कोई फर्क नहीं पड़ा हमपर
किसी भी ‘आधार’ पर लिया गया ‘लॉग’
कम नहीं कर पाया इस दर्द को
‘अवकलन’
नहीं निकाल सका इसके घटने या बढ़ने की दर
‘समाकलन’
नहीं पहुँच सका उस अनंततम सूक्ष्म स्तर पर
कि निकाल सके इसका क्षेत्रफल और आयतन

गणित और विज्ञान
अपनी सारी शक्ति लगाने के बावजूद
खड़े रह गए मुँह ताकते
उस ढाई आखर को समझने में
जिसे सैकड़ों साल पहले
एक अनपढ़ जुलाहे ने समझ लिया था