रविवार, 29 जुलाई 2012

ग़ज़ल : हमारे प्यार का सागर अगर गहरा नहीं होता


किनारे दूर तक फैला हुआ सहरा नहीं होता
हमारे प्यार का सागर अगर गहरा नहीं होता

महक उठतीं हवाएँ औ’ फ़िजा रंगीन हो जाती
जो काँटों का गुलाब-ए-इश्क पर पहरा नहीं होता

नदी खुद ही स्वयं को शुद्ध कर लेती अगर पानी
उन्हीं दो चार बाँधों के यहाँ ठहरा नहीं होता

कभी तो चीख सड़ते अन्न की इन तक पहुँच जाती
हमारे हाकिमों का दिल अगर बहरा नहीं होता

धमाकों में हुई पहचान बिखरे हाथ पैरों से
गरीबी का कभी कोई कहीं चहरा नहीं होता

गुरुवार, 26 जुलाई 2012

कविता : श्रेष्ठ कवि / लेखक

कविता पढ़ने के लिए उसे आँखों से सुनना पड़ता है और कविता सुनने के लिए उसे कानों से देखना पड़ता है।
                             - आक्टॉवियो पाज़
तो आइए और आँखों से सुनिए
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पेट्रोल में लगी हुई आग मुझ तक नहीं पहुँचेगी
(सरकार / मेरी कंपनी मुझे पेट्रोल की एक तय मात्रा का बाजार मूल्य देती है)

महँगाई की आँधी मुझ तक पहुँचते पहुँचते शीतल झोंका बन जाएगी
(मेरी तनख्वाह बढ़ती महँगाई के साथ बढ़ती है)

मेरे हिस्से की गर्मी से मेरे देश का गरीब मरता है
(मेरा कार्यालय, मेरी गाड़ी, मेरा घर सब वातानुकूलित हैं। जो अंदर का वातावरण ठंढा करने के बदले बाहर का वातावरण और गर्म करते हैं।)

टोल बैरियर वाला मुझसे पैसे नहीं माँगता।
(कुछ दिन और आम आदमी से पैसे की उगाही कर लेगा)

बनिया मेरा घरेलू सामान मुफ़्त में दे जाता है।
(आम आदमी के घरेलू सामान में थोड़ी और मिलावट कर लेगा)

मेरे वो खर्चे जो मैं सबसे छुपाकर करता हूँ, सबसे छुपाकर एक आदमी मुझे देता है। मेरे बारे में इतनी जानकारी आपको सूचना का अधिकार भी नहीं दिला सकता। 

मैं वातानुकूलित कमरे में बैठकर देश की आम जनता के दुख दर्दों पर कविता / कहानी / लेख लिखता हूँ जिन्हें पत्रिकाएँ हाथों हाथ लेती हैं। गरीबों का दुख देखकर अक्सर मेरा दिल करता है कि सारे अमीरों की चर्बी निकालकर गरीबों में बाँट दूँ। दूसरे गाँधी की बातें सुनकर मेरा सर श्रद्धा से झुक जाता है। मैं रोज सुबह ईश्वर से दुआ करता हूँ कि प्रभो इस देश से भ्रष्टाचार मिटा दो।

मैं इस देश के शीर्ष समाजवादी कवियों / लेखकों में गिना जाता हूँ। मैं प्रथम श्रेणी का अधिकारी या उसके समकक्ष कुछ अथवा ऐसे अधिकारी का सगा संबंधी हूँ।

सोमवार, 16 जुलाई 2012

ग़ज़ल : यहाँ जग जीत कर बूढ़ा जुआरी टूट जाता है

यहाँ जग जीत कर बूढ़ा जुआरी टूट जाता है
अगर दुत्कार दे मूरत तो शिल्पी टूट जाता है

यही सीखा है केवल आइने को देखकर हमने
यहाँ सच बोलता है जो वो जल्दी टूट जाता है

असर दोनों पे होता है खरी आलोचना का, पर
है मौलिक बेहतर होता, किताबी टूट जाता है

रहे ये घोंसले में और बच्चों को भी पाले, पर
लगे उड़ने पे गर पहरा तो पंछी टूट जाता है

कई तूफ़ान सूनामी ये सीने पर सहे लेकिन
तली में नाव की हो छेद, माँझी टूट जाता है

दवा की और सेवा की जरूरत है इसे लेकिन
दुआ करता न हो कोई तो रोगी टूट जाता है

हजारों दुश्मनों को मार डाले बेहिचक लेकिन
लड़े अपने ही लोगों से तो फौजी टूट जाता है

गुरुवार, 12 जुलाई 2012

कविता : बारिश, किताब और गुलाब


तुम्हारी यादों की किताब बार बार नमकीन बारिश में भीगती है
भीगे हुए दो पन्ने एक हो जाते हैं
भीतर छपे शब्द नमी पाकर फैलते हैं और अपना अस्तित्व खो बैठते हैं

अस्तित्व दर्द का पर्यायवाची है

नमी के बगैर
एक दूसरे से सालों साल सटे हुए पन्ने भी जुड़ नहीं पाते

भीगकर चिपके हुए दो पन्नों को अलग करना सबसे बड़ा गुनाह है

हर फटी पुरानी किताब में एक सूखा गुलाब होता है

खुशकिस्मत होते हैं वो गुलाब जो किताबों की बाहों में सूखते हैं

क्यारियाँ न होतीं तो क्या गुलाब के पौधे न उगते

मंदिर, जयमाल, बगीचे, क्यारियाँ और भी न जाने कहाँ कहाँ सूख रहे हैं गुलाब
मगर गुलाब के बराबर मात्राओं वाला और तुकांत शब्द किताब है
गुलाब और किताब ग़ज़ल का काफ़िया भी बन सकते हैं
फिर भी हर किताब के नसीब में गुलाब नहीं होता

बारिश, किताब और गुलाब मिलकर वह मूलकण बनाते हैं
जो जीवन का निर्माण करने वाले बाकी मूलकणों में द्रव्यमान उत्पन्न करता है

बारिश, किताब और गुलाब के पहले भी जीवन था
पर क्या वाकई वो जीवन था?

रविवार, 8 जुलाई 2012

कविता : तुम्हारी बारिश

विलियम वर्डसवर्थ के अनुसार कविता भावातिरेक में हुआ क्षणिक उद्गार है।
राबर्ट फ़्रास्ट के अनुसार कविता कुछ ऐसी चीज है जिसे कवि लिखते हैं।
जितने लोग उतनी परिभाषाएँ इसलिए अंततः किसी ने हारकर कहा कि कविता और प्रेम को परिभाषित करना असंभव है। पेश है भावातिरेक में हुआ एक उद्गार|
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बारिश धीरे धीरे गुनगुनाती है
वो सारे गीत जो मैं तुम्हारे लिए गाया करता था
झिल्ली और मेढक पार्श्व संगीत देते हैं

भीगी हुई सड़क से लौटती रोशनी तुम्हारी हँसी है

तुमसे प्यार करना
मूसलाधार बारिश में गाड़ी चलाने जैसा क्यों था?
उस भीषण दुर्घटना में मौत से बच जाना अभिशाप था

तुम्हारे बिना रहना हाथ पैरों के बगैर जीना है

भीगी हुई रातरानी तुम्हारे भीगे हुए नाखून के बराबर भी नहीं है

भीगे हुए पहाड़ पर एक एक करके बुझती हुई बत्तियाँ
तुम्हारे गहने हैं जो मैंने उतारे थे एक एक कर

बारिश बंद हो गई है सड़कें सूख रही हैं
काश! एक बार फिर तुम बरसतीं मेरी आत्मा की नमी सूख जाने के पहले

शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

ग़ज़ल : हाजिरी हो गई जिंदगी की तरह

जिंदगी हो गई हाजिरी की तरह
हाजिरी हो गई जिंदगी की तरह

काम देता नहीं मेरे मन का मुझे
और कहता है कर बंदगी की तरह

प्यार करने का पहले हुनर सीख लो
फिर इबादत करो आशिकी की तरह

था वो कर्पूर रोया नहीं मोम सा
रोज जलता गया आरती की तरह

काम दफ़्तर का करते बड़े प्यार से
इश्क करते हैं वो अफ़सरी की तरह

फिर से छलिया के होंठों पे जुंबिश हुई
मीडिया बज उठी बाँसुरी की तरह

सोमवार, 2 जुलाई 2012

नवगीत : नीम तले

नीम तले सब ताश खेलते
रोज सुबह से शाम
कई महीनों बाद मिला है
खेतों को आराम

फिर पत्तों के चक्रव्यूह में
धूप गई है हार
कुंद कर दिए वीर प्याज ने
लू के सब हथियार
ढाल पुदीने सँग बन बैठे
भुनकर कच्चे आम

छत पर जाकर रात सो गई
खुले रेशमी बाल
भोर हुई सूरज ने आकर
छुए गुलाबी गाल
बोली छत पर लाज न आती
तुमको बुद्धू राम

शहर गया है गाँव देखने
बड़े दिनों के बाद
समय पुराना नए वक्त से
मिला महीनों बाद
फिर से महक उठे आँगन में
रोटी बोटी जाम