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रविवार, 13 मई 2012

मातृ दिवस पर एक ग़ज़ल : सुबह ही रोज सूरज को मेरी माँ जल चढ़ाती है


उबलती धूप माथा चूम मेरा लौट जाती है
सुबह ही रोज सूरज को मेरी माँ जल चढ़ाती है

कहीं भी मैं गया पर आजतक भूखा नहीं सोया
मेरी माँ एक रोटी गाय की हर दिन पकाती है

पसीना छूटने लगता है सर्दी का यही सुनकर
अभी भी गाँव में हर साल माँ स्वेटर बनाती है

नहीं भटका हूँ मैं अब तक अमावस के अँधेरे में
मेरी माँ रोज चौबारे में एक दीया जलाती है

सदा ताजी हवा आके भरा करती है मेरा घर
नया टीका मेरी माँ रोज पीपल को लगाती है

6 टिप्‍पणियां:

  1. ्वाह …………माँ को शत- शत नमन ……सुन्दर प्रस्तुति।

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  2. मनभावन पोस्ट.... हे माँ तुझे प्रणाम ... शत शत नमन

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  3. बहुत सुन्दर...माँ को नमन..

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  4. नहीं भटका हूँ मैं अब तक अमावस के अँधेरे में
    मेरी माँ रोज चौबारे में एक दीया जलाती है

    बहुत खूबसूरत गजल ...

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  5. उबलती धूप माथा चूम मेरा लौट जाती है
    सुबह ही रोज सूरज को मेरी माँ जल चढ़ाती है

    कहीं भी मैं गया पर आजतक भूखा नहीं सोया
    मेरी माँ एक रोटी गाय की हर दिन पकाती है

    पसीना छूटने लगता है सर्दी का यही सुनकर
    अभी भी गाँव में हर साल माँ स्वेटर बनाती है

    नहीं भटका हूँ मैं अब तक अमावस के अँधेरे में
    मेरी माँ रोज चौबारे में एक दीया जलाती है

    सदा ताजी हवा आके भरा करती है मेरा घर
    नया टीका मेरी माँ रोज पीपल को लगाती है

    जवाब देंहटाएं

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