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बुधवार, 9 मई 2012

ग़ज़ल : जिस्म जबसे जुबाँ हो गए


जिस्म जबसे जुबाँ हो गए
लब न जाने कहाँ खो गए

कौन दे रोज तुलसी को जल
इसलिए कैकटस बो गए

ड्राई क्लीनिंग के इस दौर में
अश्क से हम हृदय धो गए

सूर्य खोजा किए रात भर
थक के हम भोर में सो गए

जो सभी पर हँसे ताउमर
अंत में खुद पे वो रो गए

4 टिप्‍पणियां:

  1. हर दिन जैसा है सजा, सजा-मजा भरपूर |
    प्रस्तुत चर्चा-मंच बस, एक क्लिक भर दूर ||

    शुक्रवारीय चर्चा-मंच
    charchamanch.blogspot.in

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  2. बढ़िया ग़ज़ल भाई साहब बधाई स्वीकार करें .
    कृपया यहाँ भी पधारें -
    बुधवार, 9 मई 2012
    शरीर की कैद में छटपटाता मनो -भौतिक शरीर

    http://veerubhai1947.blogspot.in/2012/05/blog-post_09.html#comments

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  3. बहुत अच्छी ग़ज़ल दाद कबूल करें

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  4. सूर्य खोजा किए रात भर
    थक के हम भोर में सो गए ...

    बहुत खूब ... क्या लाजवाब शेर है धर्मेन्द्र जी ... धमाल मचा दिया ...

    जवाब देंहटाएं

जो मन में आ रहा है कह डालिए।