जिस्म जबसे जुबाँ हो गए
लब न जाने कहाँ खो गए
कौन दे रोज तुलसी को जल
इसलिए कैकटस बो गए
ड्राई क्लीनिंग के इस दौर में
अश्क से हम हृदय धो गए
सूर्य खोजा किए रात भर
थक के हम भोर में सो गए
जो सभी पर हँसे ताउमर
अंत में खुद पे वो रो गए
हर दिन जैसा है सजा, सजा-मजा भरपूर |
जवाब देंहटाएंप्रस्तुत चर्चा-मंच बस, एक क्लिक भर दूर ||
शुक्रवारीय चर्चा-मंच
charchamanch.blogspot.in
बढ़िया ग़ज़ल भाई साहब बधाई स्वीकार करें .
जवाब देंहटाएंकृपया यहाँ भी पधारें -
बुधवार, 9 मई 2012
शरीर की कैद में छटपटाता मनो -भौतिक शरीर
http://veerubhai1947.blogspot.in/2012/05/blog-post_09.html#comments
बहुत अच्छी ग़ज़ल दाद कबूल करें
जवाब देंहटाएंसूर्य खोजा किए रात भर
जवाब देंहटाएंथक के हम भोर में सो गए ...
बहुत खूब ... क्या लाजवाब शेर है धर्मेन्द्र जी ... धमाल मचा दिया ...