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शुक्रवार, 4 मई 2012

कविता : अम्ल, पानी और मैं


दफ़्तर के काम में डूबा हुआ था मैं
अचानक किसी शब्द से चिपकी चली आई तुम्हारी याद

जैसे ढेर सारे ठंढे सांद्र अम्ल में गिर जाय एक बूँद पानी
और उत्पन्न हुई ढेर सारी ऊष्मा
पानी की तैरती बूँद को झट से उबाल दे
अम्ल छलक पड़े बाहर
कुछ मेरे कपड़ों पर
कुछ मेरे चेहरे पर

यूँ अचानक मत आया करो
मेरे भीतर का अम्ल मुझे जला देता है

मैं खुद आउँगा कतरा कतरा तुम्हारे पास
जैसे ढेर सारे पानी में खो जाता है बूँद बूँद अम्ल
पानी समेट लेता है अम्ल की हर बूँद अपने भीतर
और जज्ब कर लेता है सारी ऊष्मा

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