शब्द माफिया
करें उगाही
कदम कदम पर
सम्मानों की सब सड़कों पे
इनके टोल बैरियर
नहीं झुकाया जिसने भी सर
उसका खत्म कैरियर
पत्थर हैं ये
सर फूटेगा
इनसे लड़कर
शब्दों की कालाबाजारी से
इनके घर चलते
बचे खुचे शब्दों से चेलों के
चूल्हे हैं जलते
बाकी सब
कुछ करना चाहें
तो फूँके घर
नशा बुरा है सम्मानों का
छोड़ सको तो छोड़ो
बने बनाए रस्तों से
मुँह मोड़ सको तो मोड़ो
वरना पहनो
इनका पट्टा
तुम भी जाकर
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
वर्तमान प्रचलित ब्यवस्था की सटीक व्याख्या के लिये हार्दिक बधाई
जवाब देंहटाएंशुक्रिया अशोक जी
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंअपने मन-माफिक चलें, तोड़ें नित कानून ।
जवाब देंहटाएंजो इनकी माने नहीं, देते उसको भून ।
देते उसको भून, खून इनका है गन्दा ।
सत्ता लागे चून, पड़े न धंधा मन्दा ।
बच के रहिये लोग, मिले न इनसे माफ़ी ।
महानगर में एक, माफिया होता काफी ।।
दिनेश की टिप्पणी - आपका लिंक
http://dineshkidillagi.blogspot.in
शुक्रवारीय चर्चा मंच पर आपका स्वागत
जवाब देंहटाएंकर रही है आपकी रचना ||
charchamanch.blogspot.com
शुक्रिया रविकर जी
हटाएंबहुत सुन्दर .सार्थक शब्द prayog भावानुरूप .
जवाब देंहटाएं.बहुत सुन्दर .सार्थक शब्द .प्रयोग भावानुरूप .
जवाब देंहटाएंशुक्रिया वीरूभाई जी
हटाएंसच का बेलाग उद्घाटन करती यह कविता,आज के कवि के लिये एक चेतावनी भी है .बधाई !
जवाब देंहटाएंuttam prastuti
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