मत छापो मुझे
पेड़ों की लाश पर
महलों में सजी जानवरों की खालों की तरह
मत सजाओ मुझे
पुस्तकालयों के रैक पर
मैं नहीं बनना चाहती
समोसों का आधार
कुत्तों का शिकार
कूड़े का भंडार
मुझे छोड़ दो
अंतर्जाल की भूल भुलैया में
डूबने दो मुझे
शब्दों और सूचनाओं के अथाह सागर में
मुझे स्वयं तलाशने दो अपना रास्ता
अगर मैं जिंदा बाहर निकल पाई
तो मैं इस युग की कविता हूँ
वरना.........
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
कविता के अस्तिव का सुंदर चित्रण ,बधाई
जवाब देंहटाएंkya kahoon.....hamesha ki tarh ...nishabdho gayi.....varna
जवाब देंहटाएंशब्दों की तड़पन से सिहरी,
जवाब देंहटाएंचीत्कार कविता की सुन लो ।
शब्दा-डंबर शब्द-भेदता,
भावों के गुण से अब चुन लो ।
पहले भी कविता मरती पर,
मरने की दर आज बढ़ी है --
भीड़-कुम्भ में घुटता है दम,
ताना-बाना निर्गुन बुन लो ।।
दिनेश की टिप्पणी - आपका लिंक
http://dineshkidillagi.blogspot.in
behad umda!
जवाब देंहटाएंवाह, कविता के मन की थाह पा ली आपने ।
जवाब देंहटाएंअगर मैं जिंदा बाहर निकल पाई
जवाब देंहटाएंतो मैं इस युग की कविता हूँ
विचारणीय है