मुफ़्त के संबंध मत दो
बंधंनों का बोझ ढेरों
सह चुकी हूँ
तोड़कर मैं बाँध सारे
बह चुकी हूँ
कल मुझे जिससे घुटन हो
आज वह अनुबंध मत दो
पुत्र, भाई, तात सब
अधिकार चाहें
मित्र केवल शब्द ही
दो-चार चाहें
टूट जाऊँ भार से, वह
स्वर्ण का भुजबंध मत दो
क्या जरूरी है करें
संवाद पूरा
हो न पाया जो सहज
छोड़ें अधूरा
जिंदगी भर जो न टूटे
प्लीज, वह सौगंध मत दो
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
सुन्दर भावों से सुसज्जित यह नवगीत काफी पसंद आया. हार्दिक बधाई.
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक और सुन्दर गीत
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया सर!
जवाब देंहटाएंभाई धर्मेन्द्र जी बहुत सुंदर नवगीत बधाई |
जवाब देंहटाएंशनिवार के चर्चा मंच पर
हटाएंआपकी रचना का संकेत है |
आइये जरा ढूंढ़ निकालिए तो
यह संकेत ||
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबसंत पंचमी और माँ सरस्वती पूजा की हार्दिक शुभकामनाएँ । मेरे ब्लॉग "मेरी कविता" पर माँ शारदे को समर्पित 100वीं पोस्ट जरुर देखें ।
"हे ज्ञान की देवी शारदे"
भाव विशेष को उभारती सुगढ़ रचना.. .
जवाब देंहटाएंक्या आपकी उत्कृष्ट-प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंशुक्रवारीय चर्चामंच
की कुंडली में लिपटी पड़ी है ??
charchamanch.blogspot.com
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति आज charchamanch.blogspot.com par है |
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