यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण।
तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को /
कम कर देता है समय की गति /
इसे कैद करके नहीं रख पातीं /
स्थान और समय की विमाएँ।
ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में /
ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक /
जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती।
इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
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बुधवार, 4 जनवरी 2012
क्षणिका : चर्बी
वो चर्बी
जिसकी तुम्हें न अभी जरूरत है
न भविष्य में होगी
वो किसी गरीब के शरीर का मांस है
गरीब के शरीर का मांस = चर्बी
जवाब देंहटाएंsahi hai .
kya bat kahi hai apne.....satya kathan
जवाब देंहटाएंवाह ...
जवाब देंहटाएंbhut sahi kaha aapne....bahut khoob
जवाब देंहटाएंwelcome to my blog
वाह ...बहुत खूब ।
जवाब देंहटाएंचर्बी का सही विश्लेषण। बहुत सुंदर!
जवाब देंहटाएंबहुत ही करारा व्यंग हैं शोषण करने वाले धनाढ्य वर्ग पर !
जवाब देंहटाएंआह! क्या बात कही है...! सत्य... सटीक!!!
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