आज एक चक्कर और पूरा हुआ
ऐसा कहकर धरती ने दूर तक फैली आकाशगंगा को देखा
उसके मुँह से आह निकल पड़ी
सूरज से दूर
कितनी खूबसूरत दिखती है आकाशगंगा
काश! मैं मुक्त हो पाती सूरज के चिर बंधन से
केवल एक साल के लिए
पड़ोसी मंगल भी बोल पड़ा
हाँ भाभी, चलिए चलते हैं
मैं भी ऊब गया हूँ इस नीरस जिंदगी से
एक बारगी धरती के बदन में खुशी की लहर दौड़ गई
कि मंगल भी उसकी तरह सोचता है
पर अगले ही पल उसे याद आया
अरे! मैं तो खरबों खरब बच्चों की माँ हूँ
मैं सूरज से दूर गई
तो कहाँ से आएगी इनको जीवित रखने के लिए ऊर्जा
न न मंगल भैया!
मेरे बच्चों से बढ़कर मेरे लिए और कुछ नहीं है
इतना कहकर
धरती चल पड़ी
सूरज का चक्कर लगाने
और उसके बच्चे इस सब से बेखबर
चल पड़े नया साल मनाने
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
बेहतरीन लाजवाब अभिव्यक्ति……………एक माँ ऐसी ही होती है अपने बच्चो के इर्द गिर्द ही घूमता है उसका जहान्।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ! आप को सपरिवार नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना... मंगल द्वारा धरती को “भाभी” संबोधन के पीछे कोई तथ्य है क्या...? (मगल को तो संभवतः भूमी सूत कहा जाता है!) सादर बधाई और नूतन वर्ष की सादर शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंसुन्दर कल्पना और अभिव्यक्ति ! त्याग माँ का पर्याय है ।
जवाब देंहटाएंआपको सपरिवार नूतन वर्ष की शुभकामनाएँ !
नव वर्ष पर सार्थक रचना
जवाब देंहटाएंआप को भी सपरिवार नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें !
शुभकामनओं के साथ
संजय भास्कर
speechless......kya kahoo.....ap jaise rachnakaaron se hame bahut kuch sikhne ko milta hai.....utkrisht rachana....hny
जवाब देंहटाएंतभी तो हम अपनी धरती को मात्र एक ग्रह न मान कर माँ कह कर संबोधित करते है...!
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