यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण।
तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को /
कम कर देता है समय की गति /
इसे कैद करके नहीं रख पातीं /
स्थान और समय की विमाएँ।
ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में /
ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक /
जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती।
इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
पृष्ठ
▼
शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011
क्षणिका : आँच
हमारे तुम्हारे बीच
भले ही अब कुछ भी नहीं बचा
मगर तुम्हारे दिल में जल रही लौ से
मैं आजीवन ऊर्जा प्राप्त करता रहूँगा
क्योंकि आँच अर्थात अवरक्त विकिरण को चलने के लिए
किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं होती
तुम्हारी ऑच
जवाब देंहटाएंजैसे धीरे धीरे समा रही है मुझमें
ठीक उसी तरह
जैसे धीमी ऑच पर
रखा हुआ दूध
जो समय के साथ
हौले हौले अपने अंदर
समेट लेता है सारे ताप को
लेकिन उबलता नहीं
बस भाप बनकर
उडता रहता है तब तक
जब तक अपना
मृदुल अस्थित्व मिटा नहीं देता
और बन जाता है
ठेास और कठोर
कुछ ऐसे ही सिमट रहा हूँ मैं
लगातार हर पल
bahut achchi kshanika.
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत बात कही है
जवाब देंहटाएंक्या बात है....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर...
सादर...
aapki rachna -
जवाब देंहटाएंhttp://bulletinofblog.blogspot.com/2011/12/14.html
वैज्ञानिक तथ्यों को एक भावपूरित कविता में उपमा के रूप में प्रयुक्त करना सुखद लगा।
जवाब देंहटाएंसुंदर, बहुत सुंदर....
सुंदर!
जवाब देंहटाएं