वो रही कविता!
बिना किनारे की नदी
जो बहा ले जाती है
डुबा देती है
मगर जान नहीं लेती
वो रही कविता!
बिना ओजोन की पृथ्वी
जो जला देती है कोमच चमड़ी
और त्वचा को मजबूर करती है उत्परिवर्ततित होने पर
ताकि वो पराबैंगनी विकिरण को
सह सकने की क्षमता पैदा करे खुद में
वो रही कविता!
आ रही है गोली की तरह
चीर जाएगी दिल और दिमाग समेत
शरीर का हर एक अंग
मगर कहीं से भी खून नहीं बहेगा
वो रही कविता!
जीवन रक्षक कपड़े मत पहनना
त्वचा पर रक्षक क्रीम मत लगाना
बंकरों में छुप कर मत बैठना
और यदि ऐसी कोई घटना तुम्हारे साथ नहीं घट रही है
तो तुम कविता नहीं पढ़ रहे हो
केवल रास्ता ढूँढ रहे हो
शब्दों के कचरे में से बाहर निकलने का
तार्किक एवं सोचने को विवश करती बहुत ही प्रभावशाली कविता। अंतिम पद्दांश विशेषकर "बंकरों में छुप कर मत बैठना" ने अत्यंत प्रभावित किया । बधाई ।
जवाब देंहटाएंjawab nahi...ek ek shabd adbhut tarike se pesh kiya hai apne......lajwab
जवाब देंहटाएंकविता डुबा देती है मगर जान नहीं लेती... जीने की राह देती है!
जवाब देंहटाएंप्रभावशाली कविता!
शब्दों के कचरों से बाहर निकलने का रास्ता खोज रहे हो....
जवाब देंहटाएंवाह!! कविता का अलहदा नज़रिया...
सादर....
बहुत गहनता लिए हुए ..अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंबहुत ही शशक्त अभिच्यक्ति ... विज्ञान और कविता में साम्जस्त ढूंढती लाजवाब रचना ...
जवाब देंहटाएंकविमन का उन्मेष और कसक दोनों को बखूबी चितेरा गया है, बधाई मित्र
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