जब से
फलों से लदी हुई डालियों ने
झुकने से मना कर दिया
फलों ने
झुकी हुई डालियों पर लदना शुरू कर दिया
अब कहावत बदल चुकी है
आजकल जो डाल
जितना ज्यादा झुकती है
वो उतना ही ज्यादा फलती है
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
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सोमवार, 28 नवंबर 2011
गुरुवार, 24 नवंबर 2011
कविता लिखना जैसे चाय बनाना
कविता लिखना
जैसे चाय बनाना
कभी चायपत्ती ज्यादा हो जाती है
कभी चीनी, कभी पानी, कभी दूध
कभी तुलसी की पत्तियाँ डालना भूल जाता हूँ
कभी इलायची, कभी अदरक
मगर अच्छी बात ये है
कि ज्यादातर लोग भूल चुके हैं
कि चाय में तुलसी की पत्तियाँ
अदरक और इलायची भी पड़ते हैं
कुछ को ज्यादा चायपत्ती अच्छी लगती है
तो कुछ को कम दूध
और मेरा काम चल जाता है
चाय बेकार नहीं जाती
कोई न कोई पी ही लेता है
मगर कभी तो मिलेगा
मुझे इन सब का सही अनुपात
कभी तो बनाऊँगा मैं ऐसी चाय
जो जुबान को छूते ही
थोड़ी देर के लिए ही सही
इंसान को उसकी सुध बुध भुला दे
और अगर सही अनुपात नहीं भी मिला
तो भी मुझे यह संतोष तो होगा
कि मैंने अपनी ओर से कोई कमी नहीं रखी
शायद मेरी किस्मत में ही नहीं था
ऐसे स्वाद वाली चाय बनाना
पर मैं चाय बनाना नहीं छोडूँगा
क्योंकि चाय चाहे जैसी भी बने
इंसान को तरोताजा होने के लिए
चाय की जरूरत हमेशा रहेगी
और हमेशा रहेगी तलाश
एक सुध बुध भुला देने वाले स्वाद की
एक अविस्मरणीय कविता की
जैसे चाय बनाना
कभी चायपत्ती ज्यादा हो जाती है
कभी चीनी, कभी पानी, कभी दूध
कभी तुलसी की पत्तियाँ डालना भूल जाता हूँ
कभी इलायची, कभी अदरक
मगर अच्छी बात ये है
कि ज्यादातर लोग भूल चुके हैं
कि चाय में तुलसी की पत्तियाँ
अदरक और इलायची भी पड़ते हैं
कुछ को ज्यादा चायपत्ती अच्छी लगती है
तो कुछ को कम दूध
और मेरा काम चल जाता है
चाय बेकार नहीं जाती
कोई न कोई पी ही लेता है
मगर कभी तो मिलेगा
मुझे इन सब का सही अनुपात
कभी तो बनाऊँगा मैं ऐसी चाय
जो जुबान को छूते ही
थोड़ी देर के लिए ही सही
इंसान को उसकी सुध बुध भुला दे
और अगर सही अनुपात नहीं भी मिला
तो भी मुझे यह संतोष तो होगा
कि मैंने अपनी ओर से कोई कमी नहीं रखी
शायद मेरी किस्मत में ही नहीं था
ऐसे स्वाद वाली चाय बनाना
पर मैं चाय बनाना नहीं छोडूँगा
क्योंकि चाय चाहे जैसी भी बने
इंसान को तरोताजा होने के लिए
चाय की जरूरत हमेशा रहेगी
और हमेशा रहेगी तलाश
एक सुध बुध भुला देने वाले स्वाद की
एक अविस्मरणीय कविता की
सोमवार, 21 नवंबर 2011
कविता : सजा
दुनिया की ऐसी कौन सी जगह है
जहाँ ईश्वर और धर्म के नाम पर
कत्ल नहीं किए गए?
दुनिया का ऐसा कौन सा धर्म है
जो समय बीतने के साथ साथ
सड़ नहीं रहा है?
दर’असल ये सजा है
जो दे रहा है ईश्वर इंसानों को
कुछ मानवों को ईश्वर बना देने की
और कुछ मानवों द्वारा कही एवं लिखी गई बातों को
धर्म बना देने की
जहाँ ईश्वर और धर्म के नाम पर
कत्ल नहीं किए गए?
दुनिया का ऐसा कौन सा धर्म है
जो समय बीतने के साथ साथ
सड़ नहीं रहा है?
दर’असल ये सजा है
जो दे रहा है ईश्वर इंसानों को
कुछ मानवों को ईश्वर बना देने की
और कुछ मानवों द्वारा कही एवं लिखी गई बातों को
धर्म बना देने की
गुरुवार, 17 नवंबर 2011
बालगीत : छोटी सी पापा की कार
छोटी सी पापा की कार
जिसमें लगते पहिए चार
सीटें इसकी गद्देदार
हरदम चलने को तैयार
पापा को दफ़्तर ले जाए
विद्यालय मुझको पहुँचाए
शाम ढले बाजार घुमाए
फिर हम सबको घर ले आए
जब मैं खूब कमाऊँगा
बड़ी कार ले आऊँगा
माँ, पा को बैठाऊँगा
दूर दूर ले जाऊँगा
--------------------------------
इस बालगीत को आप मेरे पुत्र नव्य की आवाज़ में सुन सकते हैं। सुनने के लिए नीचे दी गई कड़ी पर जाएँ।
जिसमें लगते पहिए चार
सीटें इसकी गद्देदार
हरदम चलने को तैयार
पापा को दफ़्तर ले जाए
विद्यालय मुझको पहुँचाए
शाम ढले बाजार घुमाए
फिर हम सबको घर ले आए
जब मैं खूब कमाऊँगा
बड़ी कार ले आऊँगा
माँ, पा को बैठाऊँगा
दूर दूर ले जाऊँगा
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इस बालगीत को आप मेरे पुत्र नव्य की आवाज़ में सुन सकते हैं। सुनने के लिए नीचे दी गई कड़ी पर जाएँ।
मंगलवार, 15 नवंबर 2011
कविता : हम नहीं समझना चाहते
हम चाहते हैं स्वस्थ शरीर
मगर हम नहीं समझना चाहते
शरीर की आंतरिक संरचना
आंतरिक अंगों की कार्यप्रणाली
शारीरिक रसायनों का विज्ञान
हम चाहते हैं केवल खुशबूदार साबुन से नहाना
शरीर को तरह तरह से सजाना
और ऊपर से इत्र छिड़ककर
ये मान लेना
कि बाकी सब ऊपर वाले के हाथ में है
हम चाहते हैं स्वस्थ समाज
मगर हम नहीं समझना चाहते
व्यक्ति और समूह का मनोविज्ञान
हम नहीं जानना चाहते
कि कैसे पूरी होंगी
हर व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताएँ
रोटी, कपड़ा, मकान और प्रेम
हम जानते हैं नियम और कानून बनाना
और ये मान लेना
कि सभी लोग हर हाल में
नियम और कानूनों का पालन करेंगे
हम चाहते हैं सर्वज्ञ होना
परमसत्य का ज्ञान पाना
मगर हम नहीं समझना चाहते
क्वांटम यांत्रिकी
श्रोडिंगर की समीकरणें
अनिश्चितता का सिद्धांत
पदार्थ की द्वैती प्रकृति
विशिष्ट और सामान्य सापेक्षिकता
और ये मान लेते हैं कि ऊपर वाले ने
इस वस्तु को ऐसा ही बनाया होगा
हम चाहते हैं अमर होना
मगर हम नहीं मानना चाहते
कि केवल
गतिशील रहने को
अपने जैसे प्रतिरूप बना देने को
तंत्रिका तंत्र में सूचनाएँ भर देने को
सूचनाओं के विश्लेषण की क्षमता रखने को
नहीं कहते जिंदा रहना
क्योंकि ये सब तो यंत्र भी कर लेते हैं
और हम ये मान लेते हैं
कि जीवन मृत्यु तो ऊपर वाले के हाथ में है
हम नहीं समझना चाहते
इतनी छोटी सी बात
कि अगर ऊपर वाले को सब कुछ
अपनी इच्छा से ही करना होता
हर बात में अपना दखल ही रखना होता
इंसानों के मन में अपने प्रति अगाध श्रद्धा ही देखनी होती
सदा सर्वदा अपनी पूजा ही करवानी होती
तो उसने इंसान के जेहन में
कभी ये प्रश्न पैदा ही न होने दिया होता
कि “ऐसा क्यों होता है?”
मगर हम नहीं समझना चाहते
शरीर की आंतरिक संरचना
आंतरिक अंगों की कार्यप्रणाली
शारीरिक रसायनों का विज्ञान
हम चाहते हैं केवल खुशबूदार साबुन से नहाना
शरीर को तरह तरह से सजाना
और ऊपर से इत्र छिड़ककर
ये मान लेना
कि बाकी सब ऊपर वाले के हाथ में है
हम चाहते हैं स्वस्थ समाज
मगर हम नहीं समझना चाहते
व्यक्ति और समूह का मनोविज्ञान
हम नहीं जानना चाहते
कि कैसे पूरी होंगी
हर व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताएँ
रोटी, कपड़ा, मकान और प्रेम
हम जानते हैं नियम और कानून बनाना
और ये मान लेना
कि सभी लोग हर हाल में
नियम और कानूनों का पालन करेंगे
हम चाहते हैं सर्वज्ञ होना
परमसत्य का ज्ञान पाना
मगर हम नहीं समझना चाहते
क्वांटम यांत्रिकी
श्रोडिंगर की समीकरणें
अनिश्चितता का सिद्धांत
पदार्थ की द्वैती प्रकृति
विशिष्ट और सामान्य सापेक्षिकता
और ये मान लेते हैं कि ऊपर वाले ने
इस वस्तु को ऐसा ही बनाया होगा
हम चाहते हैं अमर होना
मगर हम नहीं मानना चाहते
कि केवल
गतिशील रहने को
अपने जैसे प्रतिरूप बना देने को
तंत्रिका तंत्र में सूचनाएँ भर देने को
सूचनाओं के विश्लेषण की क्षमता रखने को
नहीं कहते जिंदा रहना
क्योंकि ये सब तो यंत्र भी कर लेते हैं
और हम ये मान लेते हैं
कि जीवन मृत्यु तो ऊपर वाले के हाथ में है
हम नहीं समझना चाहते
इतनी छोटी सी बात
कि अगर ऊपर वाले को सब कुछ
अपनी इच्छा से ही करना होता
हर बात में अपना दखल ही रखना होता
इंसानों के मन में अपने प्रति अगाध श्रद्धा ही देखनी होती
सदा सर्वदा अपनी पूजा ही करवानी होती
तो उसने इंसान के जेहन में
कभी ये प्रश्न पैदा ही न होने दिया होता
कि “ऐसा क्यों होता है?”
शुक्रवार, 11 नवंबर 2011
कविता : वो रही कविता!
वो रही कविता!
बिना किनारे की नदी
जो बहा ले जाती है
डुबा देती है
मगर जान नहीं लेती
वो रही कविता!
बिना ओजोन की पृथ्वी
जो जला देती है कोमच चमड़ी
और त्वचा को मजबूर करती है उत्परिवर्ततित होने पर
ताकि वो पराबैंगनी विकिरण को
सह सकने की क्षमता पैदा करे खुद में
वो रही कविता!
आ रही है गोली की तरह
चीर जाएगी दिल और दिमाग समेत
शरीर का हर एक अंग
मगर कहीं से भी खून नहीं बहेगा
वो रही कविता!
जीवन रक्षक कपड़े मत पहनना
त्वचा पर रक्षक क्रीम मत लगाना
बंकरों में छुप कर मत बैठना
और यदि ऐसी कोई घटना तुम्हारे साथ नहीं घट रही है
तो तुम कविता नहीं पढ़ रहे हो
केवल रास्ता ढूँढ रहे हो
शब्दों के कचरे में से बाहर निकलने का
बिना किनारे की नदी
जो बहा ले जाती है
डुबा देती है
मगर जान नहीं लेती
वो रही कविता!
बिना ओजोन की पृथ्वी
जो जला देती है कोमच चमड़ी
और त्वचा को मजबूर करती है उत्परिवर्ततित होने पर
ताकि वो पराबैंगनी विकिरण को
सह सकने की क्षमता पैदा करे खुद में
वो रही कविता!
आ रही है गोली की तरह
चीर जाएगी दिल और दिमाग समेत
शरीर का हर एक अंग
मगर कहीं से भी खून नहीं बहेगा
वो रही कविता!
जीवन रक्षक कपड़े मत पहनना
त्वचा पर रक्षक क्रीम मत लगाना
बंकरों में छुप कर मत बैठना
और यदि ऐसी कोई घटना तुम्हारे साथ नहीं घट रही है
तो तुम कविता नहीं पढ़ रहे हो
केवल रास्ता ढूँढ रहे हो
शब्दों के कचरे में से बाहर निकलने का
गुरुवार, 3 नवंबर 2011
ग़ज़ल : टूट जाए तो आसमाँ चमके
दिल है तारा रहे जहाँ चमके
टूट जाए तो आसमाँ चमके
है मुहब्बत भी जुगनुओं जैसी
जैसे जैसे हो ये जवाँ, चमके
क्या वो आया मेरे मुहल्ले में
आजकल क्यूँ मेरा मकाँ चमके
जब भी उसका ये जिक्र करते हैं
होंठ चमकें मेरी जुबाँ चमके
वो शरारे थे या के लब मौला
छू गए तन जहाँ जहाँ, चमके
ख्वाब ने दूर से उसे देखा
रात भर मेरे जिस्मोजाँ चमके
ज्यों ही चर्चा शुरू हुई उसकी
जो कहानी थी बेनिशाँ, चमके
एक बिजली थी, मुझको झुलसाकर
कौन जाने वो अब कहाँ चमके
टूट जाए तो आसमाँ चमके
है मुहब्बत भी जुगनुओं जैसी
जैसे जैसे हो ये जवाँ, चमके
क्या वो आया मेरे मुहल्ले में
आजकल क्यूँ मेरा मकाँ चमके
जब भी उसका ये जिक्र करते हैं
होंठ चमकें मेरी जुबाँ चमके
वो शरारे थे या के लब मौला
छू गए तन जहाँ जहाँ, चमके
ख्वाब ने दूर से उसे देखा
रात भर मेरे जिस्मोजाँ चमके
ज्यों ही चर्चा शुरू हुई उसकी
जो कहानी थी बेनिशाँ, चमके
एक बिजली थी, मुझको झुलसाकर
कौन जाने वो अब कहाँ चमके