आजकल देशप्रेम का माहौल बना हुआ है। तो प्रस्तुत है एक ग़ज़ल देश प्रेम पर।
बह्र : बह्र-ए-कामिल मुसम्मन सालिम
मुतफायलुन मुतफायलुन मुतफायलुन मुतफायलुन
११२१२ ११२१२ ११२१२ ११२१२
जो भी मिट गए तेरी आन पर वो सदा रहेंगे यहीं कहीं
तेरी माटी में वो ही फूल बन के खिला करेंगे यहीं कहीं ॥१॥
ऐ वतन मेरे, नहीं कर सके, कभी काल भी, ये जुदा हमें
मैं मरा तो क्या, मैं जला तो क्या, मेरे अणु मिलेंगे यहीं कहीं ॥२॥
तू ही घोसला, तू ही है शजर, तू चमन मेरा, तू ही आसमाँ
तुझे छोड़ के, जो कभी उड़ा, मेरे पर गिरेंगे यहीं कहीं ॥३॥
कभी धूप ने जो उड़ा दिया मुझे बादलों सा बना के तो
मेरे अंश लौट के आएँगें औ’ बरस पड़ेंगे यहीं कहीं ॥४॥
कोई दोजखों में जला करे कोई जन्नतों में घुटा करे
जो किसान हैं वो अनाज बन के सदा उगेंगे यहीं कहीं॥५॥
धर्मेन्द्र भाई कामिल पर ग़ज़ल कहना आसान नहीं होता, आप ने इस काम को बख़ूबी अंज़ाम दिया है
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत गज़ल ..
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी ग़ज़ल कही है सज्जन जी आपने। आपकी ग़ज़लों में रवानी आ रही है। बहुत सी दाद कुबूल करें।
जवाब देंहटाएंऐ वतन मेरे, नहीं कर सके, कभी काल भी, ये जुदा हमें
मैं मरा तो क्या, मैं जला तो क्या, मेरे अणु मिलेंगे यहीं कहीं ॥२॥
मैं चमन मे चाहे जहाँ रहूँ मेरा हक़ है फ़सले बहार पर की याद आ गई।
अगर दोहों की तरह नम्बर न डालें तो भी ठीक रहेगा। ग़ज़लों की परिपाटी में शायद ऐसा नहीं है।
सादर