निजी पाप की मैं स्वयं को सजा दूँ
तू गंगा है पावन रहे ये दुआ दूँ
न दिल रेत का है न तू हर्फ़ कोई
जिसे आँसुओं की लहर से मिटा दूँ
बहुत पूछती है ये तेरा पता, पर,
छुपाया जो खुद से, हवा को बता दूँ?
यही इन्तेहाँ थी मुहब्बत की जानम
तुम्हारे लिए ही तुम्हीं को दगा दूँ
बिखेरी है छत पर पर यही सोच बालू
मैं सहरा का इन बादलों को पता दूँ
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
निजी पाप की मैं स्वयं को सजा दूँ
जवाब देंहटाएंतू गंगा है पावन रहे ये दुआ दूँ
aapne bahut badi bat kaha di .....sabko isi tarah sochna chahiye....eye opener
यही इन्तेहाँ थी मुहब्बत की जानम
जवाब देंहटाएंतुम्हारे लिए ही तुम्हीं को दगा दूँ
....बहुत खूब ! ख़ूबसूरत गज़ल..
निजी पाप की मैं स्वयं को सजा दूँ
जवाब देंहटाएंतू गंगा है पावन रहे ये दुआ दूँ
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति , सार्थक पोस्ट , आभार
बहुत खूबसूरत गज़ल
जवाब देंहटाएंबहुत ही खुबसूरत ग़ज़ल....
जवाब देंहटाएं