बह्र : २१२ १२२२ २१२
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लाश तेरे वादों की मैं न छोड़ पाता हूँ
रोज़ दफ़्न करता हूँ रोज़ खोद लाता हूँ
क्या कमी रहे तुझ बिन ईंट और गारे में
रोज़ घर बनाता हूँ रोज़ ही गिराता हूँ
है तू ही ख़ुदा मेरा तू ही मेरा कातिल है
रोज़ सर झुकाता हूँ रोज़ सर कटाता हूँ
इस नगर में तुझसे ज़्यादा हसीन हैं लाखों
रोज़ याद करता हूँ रोज़ भूल जाता हूँ
दर्द, रंज, तनहाई, अश्क, तंज, रुसवाई
रोज़ मैं कमाता हूँ रोज़ ही उड़ाता हूँ
sunder...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएं...बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल.....वाह!!!!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंदर्द, रंज, तनहाई, अश्क, तंज, रुसवाई
जवाब देंहटाएंरोज मैं कमाता हूँ रोज ही उड़ाता हूँ
बहुत खूबसूरत शेर कहा है! दिल से दाद कबूल करें!
शुक्रिया
हटाएंअलग मूड की ग़ज़ल| खुद्दारी के अधिक निकट लगी ये ग़ज़ल| बधाई स्वीकार करें बन्धुवर|
जवाब देंहटाएंघनाक्षरी समापन पोस्ट - १० कवि, २३ भाषा-बोली, २५ छन्द
शुक्रिया
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