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सोमवार, 18 जुलाई 2011

कविता : खहर

मुझे लगा
वो क्या अहमियत रखता है मेरे लिए
मैं इतना विशाल
और वो
मात्र एक अदना सा शून्य
और मैंने स्वयं को उससे विभाजित कर लिया

परिणाम?
‘खहर’ हो गया हूँ मैं
मुझमें
कुछ भी जोड़ो
कुछ भी घटाओ
कितने से भी गुणा करो
कितने से भी भाग दो
कोई फर्क नहीं पड़ता

अब मैं एक अनिश्चित संख्या हूँ
भटक रहा हूँ
अनंत के आसपास कहीं

9 टिप्‍पणियां:

  1. bahut vicharniye rachna gambheer bhaav prakat karti hui rachna.badhaai.

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  2. वाह सज्जन जी,
    आप तो शून्य से पंगा ले बैठे...और चल दए अनंत की ओर...?
    अत्यंत सुन्दर कल्पना है ये......

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  3. बहुत ही गहन चिंतन कराती अभिवयक्ति...

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  4. वाह क्या अन्दाज़ है…………।बहुत सुन्दर्।

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  5. इंजीनियर अब गणित की तरफ मूड रहा है| देखते हैं और क्या क्या जादुई रचनाएँ पढ़ने को मिलती हैं|

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  6. वाह सज्जन जी,
    .....अत्यंत सुन्दर कल्पना है !

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  7. नवीन जी ,यह कविता सृष्टि के जन्म की काव्यात्मक कथा है जिसे हम "बिग बेंग "कहतें हैं .डांस ऑफ़ क्रियेशन कहतें हैं ,शिव का तांडव कहतें हैं .धर्मेन्द्र जी के ब्लॉग तक पहुंचे लेकिन कमेंट्स वाली खिड़की खुली ही नहीं .इस कविता के बाद प्रस्तुत बेहतरीन ग़ज़ल भी पढ़ी जिसका हर अश -आर बे -मिसाल था और तीसरी कविता अनंत ,शून्य या इनफिनिटी को परिभाषित कर रही थी .वह भी मनोयोग से पढ़ी .

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  8. राजेश कुमारी जी, विशाल चर्चित जी, सुषमा जी, वंदना जी, नवीन भाई, अशोक कुमार शुक्ला जी, संजय भाष्कर जी और वीरू भाई जी आप सबका बहुत बहुत धन्यवाद।

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