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बुधवार, 6 जुलाई 2011

ग़ज़ल : मुहब्बत जो गंगा लहर हो गई

मुहब्बत जो गंगा-लहर हो गई
वो काशी की जैसे सहर हो गई

लगा वक्त इतना तुम्हें राह में
दवा आते आते जहर हो गई

लुटी एक चंचल नदी बाँध से
तो वो सीधी सादी नहर हो गई

चला सारा दिन दूसरों के लिए
जरा सा रुका दोपहर हो गई

समंदर के दिल ने सहा जलजला
तटों पर सुनामी कहर हो गई

जमीं एक अल्हड़ चली गाँव से
शहर ने छुआ तो शहर हो गई

तुझे देख जल भुन गई यूँ ग़ज़ल
हिले हर्फ़ सब, बेबहर हो गई

9 टिप्‍पणियां:

  1. मार डाला पापड़ वाले को यार क्या ग़ज़ल कही है दिल खुश कर दित्ता

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  2. dharmendra ji pahli bar aapki ghazal padhi bar bar padhi bahut pasand aai.just great.follow kar rahi hoon.apne blog par bhi aane ka nimantran de rahi hoon.

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  3. धर्मेन्द्र जी,
    आपकी इस ग़ज़ल का हर शेर उम्दा है, लेकिन
    लगा वक्त इतना तुम्हें राह में
    दवा आते आते जहर हो गई...
    जमीं एक अल्हड़ चली गाँव से
    शहर ने छुआ तो शहर हो गई...
    ये चार लाइनें चुरानें लायक बन गयी हैं!!!

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  4. भाई धर्मेन्द्र जी बहुत ही सुंदर गजल कही है आपने बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें |

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  5. खूबसूरत गजल. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

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  6. सुषमा जी, नवीन भाई, संगीता जी, राजेश कुमारी जी, विशाल जी, जयकृष्ण राय जी एवं डोरोथी जी आप सबका बहुत बहुत धन्यवाद।

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