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गुरुवार, 30 जून 2011

कविता : काश मैं जीत पाता

काश मैं गोड़ पाता
दिमाग के उन ऊपजाऊ कोनों को
जहाँ हमेशा खर-पतवार ही उगता है

काश मैं सींच पाता
दिमाग के उस रेगिस्तान को
जहाँ सिर्फ बबूल ही उगता है

काश मैं जीत पाता
दिमाग के अँधेरे कोने में बसे
उस राक्षस से
जो सामने आते ही
आधी ताकत ले लेता है
और मेरी ही ताकत से
मुझे हरा कर अपना गुलाम बना लेता है

काश मैं जीत पाता!
काश इंसान जीत पाता!

6 टिप्‍पणियां:

  1. काश मैं सींच पाता
    दिमाग के उस रेगिस्तान को
    जहाँ सिर्फ बबूल ही उगता है
    bahut badhiyaa

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  2. काश मैं जीत पाता
    दिमाग के अँधेरे कोने में बसे
    उस राक्षस से
    जो सामने आते ही
    आधी ताकत ले लेता है
    और मेरी ही ताकत से
    मुझे हरा कर अपना गुलाम बना लेता है

    विलक्षण पंक्तियाँ| बधाई|

    जवाब देंहटाएं
  3. काश मैं जीत पाता
    दिमाग के अँधेरे कोने में बसे
    उस राक्षस से
    जो सामने आते ही
    आधी ताकत ले लेता है
    और मेरी ही ताकत से
    मुझे हरा कर अपना गुलाम बना लेता है
    ....
    Aapne yahan par meri hi peeda ko apne shabd diye hai ,bahut bahut abhar aapka.

    जवाब देंहटाएं
  4. रचना के बिम्ब बहुत रोचक है शब्द संयोजन बहुत कमाल का खुबसूरत रचना

    जवाब देंहटाएं

जो मन में आ रहा है कह डालिए।