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रविवार, 26 जून 2011

ग़ज़ल : जिंदा मुर्दों को जरा राह दिखाई जाए

जिंदा मुर्दों को जरा राह दिखाई जाए
आज कंधों पे कोई लाश उठाई जाए

चाँद के दिल में जरा आग लगाई जाए
आओ सूरज से कोई रात बचाई जाए

आज फिर नाज़ हो आया है ख़ुदी पे मुझको
आज खुद से भी जरा आँख मिलाई जाए

खोजते खोजते मिल जाए सुहाना बचपन
आज बहनों की कोई चीज छुपाई जाए

आज मस्जिद में न था रब मैं ढूँढ़कर हारा
आज मयखाने में फिर रात बिताई जाए

9 टिप्‍पणियां:

  1. आज मस्जिद में न था रब मैं ढूँढ़कर हारा
    आज मयखाने में फिर रात बिताई जाए

    --वाह वाह!! क्या बात है!!!

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  2. वाह वाह बहुत सुंदर अहसास मुबारक हो

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  3. समीर जी, अना जी, संगीता जी, सुरेंद्र जी, सुनील जी और सुषमा जी आप सबका बहुत बहुत धन्यवाद।

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  4. खोजते खोजते मिल जाए सुहाना बचपन
    आज बहनों की कोई चीज छुपाई जाए

    आज मस्जिद में न था रब मैं ढूँढ़कर हारा
    आज मयखाने में फिर रात बिताई जाए

    सारी ग़ज़ल ही मनभावन है, पर ये दो शेर तो हमारा दिल ही लूट ले गये धर्मेन्द्र भाई|

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