चंदा तारे बन रातों में नभ को जाती हैं।
सूरज उगते ही सारी यादें सो जाती हैं।
आँखों में जब तक बूँदें तब तक इनका हिस्सा,
निकलें तो खारा पानी बनकर खो जाती हैं।
सागर की करतूतें बादल तट पर लिख जाते,
लहरें आकर पल भर में सबकुछ धो जाती हैं।
भिन्न उजाले में लगती हैं यूँ तो सब शक्लें,
किंतु अँधेरे में जाकर इक सी हो जाती हैं।
हवा सुगंधित हो जाये कितना भी पर ‘सज्जन’,
मीन सभी मरतीं जल से बाहर जो जाती हैं।
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
bhut hi acchi gazal...
जवाब देंहटाएंवाह धर्मेन्द्र भाई वाह| एक और शानदार गजल आप की तरफ से| बधाई हो|
जवाब देंहटाएंआँखों में जब तक बूँदें तब तक इनका हिस्सा
जवाब देंहटाएंनिकलें तो खारा पानी बनकर खो जाती हैं।
बहुत प्यारा शेर.....
बहुत खूबसूरत गज़ल ..
जवाब देंहटाएंशुषमा जी, नवीन जी, वीना जी एवं संगीता जी आप सबका बहुत बहुत शुक्रिया
जवाब देंहटाएंआँखों में जब तक बूँदें तब तक इनका हिस्सा
जवाब देंहटाएंनिकलें तो खारा पानी बनकर खो जाती हैं...
गहरे भाव हैं ... बहुत सी लाजवाब शेर है ...
बहुत बहुत शुक्रिया दिगंबर नासवा जी।
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