हम-तुम
जैसे सरिया और कंक्रीट
दिन भर मैं दफ़्तर का तनाव झेलता हूँ
और तुम घर चलाने का दबाव
इस तरह हम झेलते हैं
जीवन का बोझ
साझा करके
किसी का बोझ कम नहीं है
न मेरा न तुम्हारा
झेल लेंगें हम
आँधी, बारिश, धूप, भूकंप, तूफ़ान
अगर यूँ ही बने रहेंगे
इक दूजे का सहारा
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
झेल लेंगें हम
जवाब देंहटाएंआँधी, बारिश, धूप, भूकंप, तूफ़ान
अगर यूँ ही बने रहेंगे
इक दूजे का सहारा......
साझा विश्वास है, तो कुछ भी मुश्किल नहीं
ek dusre ke sath ho har raah asaan ho jati hai...
जवाब देंहटाएंइंजीनियर बाबू की बेहद खूबसूरत कविता........इसे संकलन का हिस्सा ज़रूर बनाना बन्धु|
जवाब देंहटाएंसरिया और कंक्रीट .........तनाव और दबाव
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अंदाज़ में लिखी आपकी रचना , यथार्थ को बड़ी आसानी से व्याख्यायित करने में सक्षम है |
बस ये विश्वास बना रहे कुछ भी कठिन नहीं है .......
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति...
आभार !
रश्मि जी, सुषमा जी, नवीन भाई, सुरेंद्र जी और निवेदिता जी आप सबका बहुत बहुत धन्यवाद
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