वो जो रुख़-ए-हवा समझते हैं
हम उन्हें धूल सा समझते हैं ॥१॥
चाँद रूठा ये कहके उसको हम
एक रोटी सदा समझते हैं ॥२॥
धूप भी तौल के बिकेगी अब
आप बाजार ना समझते हैं ॥३॥
तोड़ कर देख लें वो पत्थर से
जो हमें काँच का समझते हैं ॥४॥
जो बसें मंदिरों की नाली में
वो भी खुद को ख़ुदा समझते हैं ॥५॥
आदरणीय धर्मेन्द्र जी
जवाब देंहटाएंक्या खूब कहा है...
धूप भी तौल के बिकेगी अब
आप बाजार ना समझते हैं
तोड़ कर देख लें वो पत्थर से
जो हमें काँच का समझते हैं
सादर नमस्कार !
http://anandkdwivedi.blogspot.com/
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (14-4-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
मजेदार गजल...बहुत खुबसुरत।
जवाब देंहटाएंधूप भी तौल के बिकेगी अब
जवाब देंहटाएंआप बाजार ना समझते हैं ॥३॥
खुबसूरत शेर मुबारक हो
उम्दा ग़ज़ल धर्मेन्द्र भाई| दिल के काफी करीब| आप अपनी ग़ज़लों के माध्यम से अपने दिल की बात साफ साफ कह देते हैं, मसलन चाँद-रोटी वाली बात, पत्थर-काँच वाली बात, कमाल है भाई कमाल|
जवाब देंहटाएंतोड़ कर देख लें वो पत्थर से
जवाब देंहटाएंजो हमें काँच का समझते हैं ॥
बहुत खूब..क्या कहने....
धर्मेन्द्र जी सुंदर गज़ल बहुत बहुत बधाई |
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