आज पलकों पे आग पलने दो
ना बुझाओ चराग जलने दो
आग बुझती न सूर्य के दिल की
आयु दिन एक से हैं ढलने दो
नींद की बर्फ लहू में पैठी
रात की धूप में पिघलने दो
शर्म की छाँव, इश्क का पौधा
सूख जाएगा इसे फलने दो
थक गई है ये अकेले चलकर
आज साँसों पे साँस मलने दो
नीर सा मैं हूँ शर्करा सी तुम
थोड़ी जो है खटास चलने दो
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
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बहुत खूब ....होली की शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (21-3-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
नीर सा मैं हूँ शर्करा सी तुम
जवाब देंहटाएंथोड़ी जो है खटास चलने दो ..
Bahut khoob ... paani aur shakkar .... kya baat hai Dharmendr ji ..
नीर और शक्कर हैं तो खटास कहाँ टिकेगी ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति !
खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार.
जवाब देंहटाएंसादर,
डोरोथी.