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बुधवार, 9 मार्च 2011

ग़ज़ल: हर अँधेरा ठगा नहीं करता

हर अँधेरा ठगा नहीं करता
हर उजाला वफा नहीं करता

देख बच्चा भी ले ग्रहण में तो
सूर्य उसपर दया नहीं करता

चाँद सूरज का मैल भी ना हो
फिर भी तम से दगा नहीं करता

बावफा है जो देश खाता है
बेवफा है जो क्या नहीं करता

गल रही कोढ़ से सियासत है
कोइ अब भी दवा नहीं करता

प्यार खींचे इसे समंदर का
नीर यूँ ही बहा नहीं करता

झूठ साबित हुई कहावत ये
श्वान को घी पचा नहीं करता

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