[१]
छंद : दोहा
है ग्यारह आयाम से, निर्मित यह संसार
सात मात्र अनुमान हैं, अभी ज्ञात हैं चार।
तीन दिशा आयाम हैं, चतुर्याम है काल;
चारों ने मिलकर बुना, स्थान-समय का जाल।
सात याम अब तक नहीं, खोज सका इंसान;
पर उनका अस्तित्व है, हमको है यह ज्ञान।
हैं रहस्य संसार के, बहुतेरे अनजान;
थोड़े से हमको पता, कहता है विज्ञान।
कहें समीकरणें सभी, होता है यह भान;
जहाँ बसे हैं हम वहीं, हो सकते भगवान।
यह भी संभव है सखे, हो अपना दिक्काल;
दिक्कालों के सिंधु में, तैर रही वनमाल।
ऐसे इक दिक्काल में, रहें शक्ति शिव संग;
है बिखेरती हिम जहाँ, भाँति-भाँति के रंग।
जहाँ शक्ति सशरीर हों, सूरज का क्या काम;
सबको ऊर्जा दे रहा, केवल उनका नाम।
कालचक्र है घूमता, प्रभु आज्ञा अनुसार;
जगमाता-जगपिता की, लीला अमर अपार।
करते हैं सब कार्य गण, लेकर प्रभु का नाम;
नंदी भृंगी से सदा, रक्षित है प्रभु धाम।
विजया जया किया करें, जब माता सँग वास;
प्रिय सखियों से तब उमा, करें हास परिहास।
हिमगिरि चारों ओर हैं, बीच बसा इक ताल;
मानसरोवर नाम है, ज्यों पयपूरित थाल।
कार्तिकेय हैं खेलते, मानसरोवर पास;
उन्हें देख सब मग्न हैं, मात-पिता, गण, दास।
सुन्दर छवि शिवपुत्र की, देती यह आभास;
बालरुप धर ज्यों मदन, करता हास-विलास।
सोच रहे थे जगपिता, देवों में भ्रम आज;
प्रथम पूज्य है कौन सुर, पूछे देव-समाज?
आदिदेव हूँ मैं मगर, स्वमुख स्वयं का नाम;
लूँगा तो ये लगेगा, अहंकार का काम।
कुछ तो करना पड़ेगा, बड़ी समस्या आज;
तभी सोच कुछ हँस पड़े, महादेव गणराज।
[२]
छंद : रोला
कालान्तर में जया और विजया ने आकर,
कहा उमा से--“सखी जरा सोचो तो आखिर;
ये सारे गण, नंदी, भृंगी शिव के चाकर,
शिव की ही आज्ञा का पालन करें यहाँ पर;
यद्यपि वे अपने ही हैं पर मन ना माने,
ऐसा कोई हो जो बस हमको पहचाने।”
माता बोलीं--“सच हो तुम दोनों का सपना,
फुर्सत में मैं कभी बना दूँगी गण अपना।”
आई गई हो गई यूँ ही घटना सारी,
पर लीला भोले की क्या जानें संसारी।
इक दिन माता स्नान कर रहीं थीं जब भीतर,
पहुँचे भोले भंडारी तब घर के बाहर;
नंदी खड़ा कर रहा था घर की रखवाली,
बोले प्रभो—“कहाँ है मेरी प्रिय घरवाली।”
नन्दी बोला—“स्नान कर रही हैं जगमाता।”
“हटो सामने से अब मैं हूँ अन्दर जाता।”
यह कहकर जब जगतपिता कुछ आगे आए,
नन्दी हटा पूर्ण श्रद्धा से शीश झुकाए;
आते देख प्रभो को, माँ को लज्जा आई,
तथा बात सखियों की तभी उन्हें याद आई;
उन्हें लगे वे वचन उस समय अति हितकारी,
निज गण का सुविचार लगा तब अति सुखकारी;
सोचा माँ ने एक गुणी बालक हो ऐसा,
कार्यकुशल, आज्ञा में तत्पर रहे हमेशा;
जो भय से या मोह-लोभ से विचलित ना हो,
देव, दैत्य, त्रिदेव से जिसे कुछ डर ना हो।
[3]
छंद : दुर्मिल
तब विचार कर माँ ने महाऊर्जा को तत्काल बुलाया,
और फिर उसे घनीभूत कर इक सुन्दर सा पिंड बनाया;
अपनी प्राण ऊर्जा का कुछ एक उसीमें अंश मिलाया,
तथा इस तरह चेतनता दे इक बालक संपूर्ण बनाया।
सुंदर दोषरहित अंगों का स्वामी, महाकाय वह था,
शोभायमान शुभलक्षण थे सम्पन्न पराक्रम बल से था;
देवी ने उसे अनेक वस्त्र, आभूषण औ’ आशीष दिया,
उसने देवी के सम्मुख आदर पूर्वक नत निज शीश किया।
बोलीं माता—“तुम अंश हमारे, पुत्र हमारे, हो प्यारे,
तुम प्रिय सबसे हो सुत मेरे, है नहीं दूसरा तुम सा रे;
तुम सभी गणों के हो स्वामी इसलिये नाम गणपति, गणेश,
तुमको है नहीं किसी का डर हों विधि या हरि या हों महेश।”
बोले गणेश तब--“हे माता मुझको क्यों जीवनदान दिया,
वह कौन असंभव कार्य जिसलिए है मेरा निर्माण किया।”
माता बोलीं--“इक कार्य बहुत छोटा सा तुमको है करना,
है घर का मुख्य द्वार तुमको हर पल हर क्षण रक्षित रखना;
मेरी आज्ञा के बिना कोइ भी भीतर न आने पाये,
वह हो कोई भी और कहीं से भी हठ करता वह आये।”
ऐसा कह माता ने इक छोटी सुदृढ़ छड़ी गणेश को दी,
फिर परमऊर्जा अपनी उसमें सारी की सारी भर दी;
हाथों में लेकर परमदण्ड आए गणेश दरवाजे पर,
माता होकर निश्चिन्त चलीं करने स्नान तब गृह भीतर।
[४]
छंद : तोमर
जटा बीच गंगधार,
करते लीला अपार,
बहुविधि नाना प्रकार;
आये प्रभु तभी द्वार।
खड़े थे गणेश वहीं,
बोले—“रुक जाओ यहीं,
माता हैं स्नान करें,
अभी आप धैर्य धरें;
देवि मिलना चाहेंगी,
तो स्वयं बुलायेंगी;
बिना उनकी आज्ञा के,
कोई भी जा न सके।”
यह सुन प्रभु तमक उठे,
रोम रोम भभक उठे,
बोले प्रभु—“अरे मूर्ख,
मारूँ मैं एक फूँक,
तो हिलती धरती है,
तेरी क्या हस्ती है;
जानता नहीं क्या तू,
मैं ही जगकर्ता हूँ,
मैं ही जगभर्ता हूँ,
मैं ही जगहर्ता हूँ,
विधि-हरि का सृष्टा हूँ
मैं त्रिकालदृष्टा हूँ,
पर तुझको तो मेरे,
सेवक ये बहुतेरे,
ही बेबस कर देंगे,
तव घमंड हर लेंगे।”
यह सुनकर गण बोले--
“क्रोधित हैं बम-भोले,
तुमको शिव-गण समान,
अब तक हम रहे मान,
वरना क्या तुम्हें ज्ञान,
कबका हर लेते प्रान,
इसी में भलाई अब,
थोड़ा सा जाओ दब,
रास्ते से हट जाओ,
मृत्यू से बच जाओ।”
बोले यह सुन गणेश,
“चाहे ये हों महेश
या हों जगसृष्टा ये,
या त्रिकालदृष्टा ये,
मैं आज्ञा पालक हूँ,
माता का बालक हूँ,
बिना मातृ आज्ञा के,
भीतर ये जा न सकें।”
यह सुनकर गण सारे,
बोले—“प्रभु हम हारे,
समझा-समझा इसको,
ये सुनता ना हमको,
जिद्दी यह लड़का है,
बुद्धी से कड़का है।”
गणों से ऐसा सुनकर,
बोले तब शिव शंकर,
“महारथी हो तुम सब,
इसकी क्यों सुनते अब,
मुझे कथा मत सुनाओ,
इसे द्वार से हटाओ।”
[५]
छंद : रोला
भोले भण्डारी के मुख से ऐसा सुनकर,
सारे आए अस्त्र शस्त्र हाथों में लेकर।
सबसे पहले नन्दी ने निज बल अजमाया,
महाऊर्जा ने झटका दे दूर हटाया;
एक बार जो गिरा दुबारा उठ ना पाया,
देख दशा नन्दी की सब का जी घबराया।
किन्तु क्रोध भोले का तभी ध्यान में आया,
सबने एक साथ मिलकर भुजबल दिखलाया;
पर अपार है भोले-भंडारी की माया,
महाऊर्जा ने वह झटका पुनः लगाया;
सबके सब गिर गये पलों में मूर्च्छित होकर,
दूर खड़े बस मुसकाते थे भोले-शंकर;
सोचा प्रभु ने कर दें गर्व चूर देवों का,
फूल गये सब कर सेवन पूजा-मेवों का।
इन्द्र देव को तब प्रभु ने तत्काल बुलाया,
अग्नि, पवन, दिनकर को भी वह सँग सँग लाया;
अग्नि देव सबसे पहले थे आगे आए,
आकर गौरीसुत पर सारे बल अजमाए;
अग्नि क्या करे जहाँ स्वयं हो महाऊर्जा,
पवन देव डर गये देख वह परमऊर्जा;
दिनकर जाकर छुपे पहाड़ों के पीछे फिर,
वरुण देव क्या करते हारे वे भी आखिर;
इन्द्र देव का वज्र पिघलकर मिला धरा में,
तथा मदन थे काँप रहे ज्यों वृद्ध जरा में;
आये तब विधि, हरि शस्त्रों से सज्जित होकर,
चक्र सुदर्शन लौटा ले शिवसुत के चक्कर;
सारे अस्त्र शस्त्र थे लौटे निष्फल होकर,
विधि, हरि देख रहे थे यही अचम्भित होकर।
इन सबका कर गर्व चूर शिव आगे आए,
शस्त्र उन्होंने भाँति भाँति के तब अजमाए;
अस्त्र शस्त्र गिर गए सभी जब निष्फल होकर,
तब जाकर थे क्रुद्ध हुए प्रभु भोले शंकर;
नेत्र तीसरा तभी उन्होंने अपना खोला,
निकला आदि ऊर्जा का उससे एक शोला;
महाऊर्जा हटी राह से शीश झुकाए,
मगर खड़े थे गौरीसुत निज शीश उठाये।
आदि ऊर्जा भस्म कर गई मस्तक उनका,
तड़प उठा होकर विहीन सर से धड़ उनका।
[६]
यह खबर गई माता का कोमल हृदय चीर,
दिल का लोहू टपका तब बनकर नयन नीर।
जब देखा माँ ने निज सुत का विच्छेदित तन,
तब बिलख बिलख कर रोया उनका कोमल मन।
ज्यों गंगाजल से निकल पड़ी हो महाअगन,
त्यों उनके मुख से थे निकले तब यही वचन।
XXX XXX XXX XXX
छंद : गीत
देवों दैत्यों का फर्क मिट गया आज!
एक नन्हे पौधे को कुचला,
इक कलिका को तुमने मसला,
तुमने बालक की हत्या की,
तुम महापाप के हो भागी,
आई ना तुमको सुरों जरा भी लाज!
देवों दैत्यों का फर्क मिट गया आज!
मानव बालक जिद करते हैं,
तो मानव पूरी करते हैं,
जिद अगर मानने योग्य नहीं,
तो समझाते हैं उसे सभी,
बहला फुसला सब करते अपना काज!
देवों दैत्यों का फर्क मिट गया आज!
तुम मानव से कुछ शिक्षा लो,
मत केवल पूजा-भिक्षा लो,
तुम मानव से भी निम्न आज,
तिस पर किंचित भी नहीं लाज,
तुम सबने पहना दानवता का ताज!
देवों दैत्यों का फर्क मिट गया आज!
मेरे बालक की क्या गलती,
यह तो मेरी ही आज्ञा थी,
निर्भय मेरा वह लालन था,
बस करता आज्ञा पालन था,
है मुझको अपने वीर पुत्र पर नाज!
देवों दैत्यों का फर्क मिट गया आज!
[७]
छंद : रोला
दिल का दर्द बहा नेत्रों से जैसे जैसे,
क्रोध उतरता आया उनमें वैसे वैसे।
सोचा माँ ने हुआ आज अपमान बड़ा है,
अहंकार नर का ही ये सशरीर खड़ा है;
नारीक्रोध आज इनको दिखलाना होगा,
इज्जत नारी की करना सिखलाना होगा;
क्रोध बढ़ा जगमाता का फिर जैसे जैसे,
काली रूप उभरता आया वैसे वैसे।
रूप महाकाली का क्या लिक्खूँ कैसा था,
धारण किया शरीर प्रलय ने कुछ ऐसा था;
उसे देख भयभीत हो गये शिवगण सारे,
दौड़े, भागे, छिपे सभी जा जा बेचारे;
काली करने लगीं द्रव्य-ऊर्जा रूपान्तर,
जलने लगीं दिशाएँ, सुलगे धरती अंबर;
लगे चीखने गण, काँपे देवों के अंतर,
निकट सृष्टि का अंत देखकर भोले शंकर;
बोले, “देवों! रुष्ट हो गईं हैं जगमाता,
माँ बेटे का होता है कुछ ऐसा नाता;
बेटे का अरि होता है माता का दुश्मन,
इसीलिए अब उमा-शत्रु से हैं हम सब जन;
महासमस्या है जल्दी हल करना होगा,
गौरीसुत को फिर से चंचल करना होगा;
भस्म कर चुकी हो जिसको खुद आदि ऊर्जा,
उसको फिर साकार नहीं कर सकता दूजा;
कामदेव को भस्म किया था इसने सारा,
बना अनंग घूमता तबसे वह बेचारा;
जाओ, दौड़ो, खोजो समय बहुत ही कम है,
ढूँढो कोई जिसमें गणपति सम दम-खम है;
उसका सिर लेकर आओ अतिशीघ्र तुम सभी,
सृष्टि बचेगी और बचोगे तुम सब तब ही।”
दौड़े सभी देवता औ’ शिवगण तब ऐसे,
देख काल को भागें सब नश्वर नर जैसे;
दिखा एक गज महाकाय तब अतिबलशाली,
काटा शीश, तोड़ता ज्यों कलिका को माली;
लेकर आये, धन्वन्तरि तैयार खड़े थे,
जोड़ा सिर को धड़ से, वे होशियार बड़े थे;
भोले शंकर तब मुस्काकर आगे आये,
थोड़ी प्राण ऊर्जा अपनी सँग ले लाये;
वही ऊर्जा अपनी जब गणपति में डाली,
हुआ पुत्र सम्पूर्ण सोच मुस्का दीं काली;
गणपति उठे तेज शिव औ’ शक्ती का लेकर,
उन्हें साथ ले आगे आए भोले शंकर।
बोले काली से, “देवी अब शांति धरो तुम,
अखिल सृष्टि का ऐसे मत विध्वंस करो तुम;
पुत्र तुम्हारा है जीवित, अजेय, बलशाली,
अब तो बनो शिवा हे महाकाल की काली;
अनजाने में तुम्हरा जो अपमान किया है,
आज उसी की खातिर यह वरदान दिया है;
नारी नाम सदा नर से पहले आएगा,
भोले शंकर गौरीशंकर कहलाएगा;
नारी की आहुति बिन यज्ञ अपूर्ण रहेंगे,
मुझे आज से गौरीपति सब लोग कहेंगे;
बिन प्रयास वह पुरुष हृदय पर राज करेगी,
अखिल सृष्टि इक दिन नारी पर नाज करेगी;
नारी का अपमान करेगा जो कोई भी,
होगा नष्ट समूल देव हो या कोई भी;
जिस भी घर में नारी का सम्मान रहेगा,
उस घर का निज देश जाति में मान रहेगा;
इसीलिए हे गौरी अब निज क्रोध तजो तुम,
भजो भजो, हे देवो! जय जय उमा भजो तुम।”
लगे देव सब कहने जय जय खप्परवाली,
करो कृपा हम सबपर महाकाल की काली।
हे अम्बे, जगदम्बे, हे जगमाता जय हो,
हे परमेश्वरि, शिवे, आदिशक्ती जय जय हो;
शांत करो निज क्रोध दया तुम दिखलाओ माँ,
करो सृष्टि पर कृपा पुत्र को दुलराओ माँ।
आगे बढ़े गणेश और फिर बोले माता,
हो जाओ अब शान्त दयामयि! हे जगमाता!
सुने पुत्र के वचन मधुर तो माता पिघलीं,
काली रूप तजा औ’ बनकर गौरी निकलीं;
बोलीं जगमाता तब सब से, “हे बड़भागी,
हुए आज तुम सब बालक-हत्या के भागी;
इसका प्रायश्चित तुम सबको करना होगा,
देवों की महिमा को जीवित रखना होगा।”
सभी देवता कर प्रणाम माँ को बोले तब,
हमसे पहले गणपति की पूजा होगी अब;
यज्ञ भाग सबसे पहले गणपति का होगा,
गणपति की पूजा बिन सबकुछ निष्फल होगा;
हैं गणेश अब से ही सर्वाध्यक्ष सुरों के,
पूज्य आज से देव, नरों, अक्षों, असुरों के।
सब बच्चों में प्रभो स्वयं अब वास करेंगे,
बालक सेवा करने से दुख नाश करेंगे;
बालक की मुस्कान हमें नित ऊर्जा देगी,
बालक दुख में दरिद्रता ही वास करेगी;
पूजा सबसे बड़ी, हँसी नन्हें बालक की,
बाकी सारी पूजा इसके बाद है आती।
नारी का सम्मान सिखा देवों को माता,
हुईं प्रसन्न देख बालक-ईश्वर का नाता।
छंद : दोहा
गौरीसुत का तेजमय, सुन्दर मुख अवलोक।
वर दे निज सामर्थ्य के, गए सभी निज लोक॥
नारी का सम्मान औ’ हर बालक को प्यार।
करता जो भी जन, सदा, पाता खुशी अपार॥
हर्षित थे भोले बहुत, पूर्ण हुआ यह काम।
प्रथम पूज्य के रूप में, स्वीकृत गणपति नाम॥
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
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प्रिय बन्धु सज्जन जी ,
जवाब देंहटाएंआपने तो एक पूरा खंडकाव्य ही प्रस्तुत कर दिया है 'श्रीगणेश जन्म' का |
सभी सर्ग भिन्न-भिन्न सुन्दर छंदों में बहुत ही भावपूर्ण और सुन्दर हैं |
कथानक को काव्य में ढालने ,उसे पद्य रूप में प्रस्तुत करने की शैली सराहनीय है |
महाशिवरात्रि पर्व पर इससे बड़ी पूजा क्या हो सकती है !
बहुत-बहुत हार्दिक आभार
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (2-3-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
बहुत सुन्दर प्रस्तुति|
जवाब देंहटाएंमहाशिवरात्री की हार्दिक शुभकामनाएँ|
गणेश जी और पूरे शिव परिवार का सुंदर वर्णन धन्यवाद
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