शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

ग़ज़ल: एक आँसू आँख से बाहर छलकता रोज ही

एक आँसू आँख से बाहर छलकता रोज ही
जख़्म यूँ तो है पुराना पर कसकता रोज ही।

थी मिली मुझसे गले तू पहली-पहली बार जब
वक्त की बदली में वो लम्हा चमकता रोज ही।

कोशिशें करता हूँ सारा दिन तुझे भूलूँ मगर
चूम कर तस्वीर तेरी मैं सिसकता रोज ही।

इक नई मुश्किल मुझे मिल जाती है हर मोड़ पर,
क्या ख़ुदा की आँख में मैं हूँ खटकता रोज ही।

लिख गया तकदीर में जो रोज बिखरूँ टूट कर
आखिरी पल मैं उसी को हूँ पटकता रोज ही।

2 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय श्रीधर्मेन्द्रसिंहजी,

    मननीय गज़ल है। आप को ढ़ेर सारी बधाई ।

    एक आँसू आँख से बाहर छलकता रोज ही
    जख़्म यूँ तो है पुराना पर कसकता रोज ही।

    मार्कण्ड दवे.
    mktvfilms.blogspot.com

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  2. कोशिशें करता हूँ सारा दिन तुझे भूलूँ मगर
    चूम कर तस्वीर तेरी मैं सिसकता रोज ही।

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जो मन में आ रहा है कह डालिए।