एक आँसू आँख से बाहर छलकता रोज ही
जख़्म यूँ तो है पुराना पर कसकता रोज ही।
थी मिली मुझसे गले तू पहली-पहली बार जब
वक्त की बदली में वो लम्हा चमकता रोज ही।
कोशिशें करता हूँ सारा दिन तुझे भूलूँ मगर
चूम कर तस्वीर तेरी मैं सिसकता रोज ही।
इक नई मुश्किल मुझे मिल जाती है हर मोड़ पर,
क्या ख़ुदा की आँख में मैं हूँ खटकता रोज ही।
लिख गया तकदीर में जो रोज बिखरूँ टूट कर
आखिरी पल मैं उसी को हूँ पटकता रोज ही।
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
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शनिवार, 26 फ़रवरी 2011
बुधवार, 23 फ़रवरी 2011
ग़ज़ल: लुटके मस्जिद से हम नहीं आते
लुटके मस्जिद से हम नहीं आते
मयकदे में कदम नहीं आते
कोई बच्चा कहीं कटा होगा
गोश्त यूँ ही नरम नहीं आते
आग दिल में नहीं लगी होती
अश्क इतने गरम नहीं आते
भूख से फिर कोई मरा होगा
यूँ ही जलसों में रम नहीं आते
प्रेम में गर यकीं हमें होता
इस जहाँ में धरम नहीं आते
कोई अपना ही बेवफ़ा होगा
यूँ ही आँगन में बम नहीं आते
मयकदे में कदम नहीं आते
कोई बच्चा कहीं कटा होगा
गोश्त यूँ ही नरम नहीं आते
आग दिल में नहीं लगी होती
अश्क इतने गरम नहीं आते
भूख से फिर कोई मरा होगा
यूँ ही जलसों में रम नहीं आते
प्रेम में गर यकीं हमें होता
इस जहाँ में धरम नहीं आते
कोई अपना ही बेवफ़ा होगा
यूँ ही आँगन में बम नहीं आते