बहर : फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
बहरे मुतकारिब मुसद्दस सालिम
ग़ज़ल पर ग़ज़ल क्या कहूँ मैं
यही बेहतर चुप रहूँ मैं
तेरे रूप की धूप गोरी
तेरे गेसुओं से सहूँ मैं
न तेजाब है ना अगन तू
तुझे छूके फिर क्यूँ दहूँ मैं
न चिंता मुझे दोजखों की
जमीं पर ही जन्नत लहूँ मैं
जो दीवार बन तुझको रोकूँ
कसम मुझको फौरन ढहूँ मैं
तेरे प्यार की धार में ही
मरूँ या बचूँ पर बहूँ मैं
बहुत ही सुंदर रचना.......
जवाब देंहटाएंगाजियाबाद से एक यलो एक्सप्रेस चल रही है जो आपके ब्लाग को चौपट कर सकती है, जरा सावधान रहे।
जवाब देंहटाएंbahut badiya.. likhte rahiye..
जवाब देंहटाएंPlease visit my blog..
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वाह वाह वाह, बहुत खूब धर्मेन्द्र भाई
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