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रविवार, 2 जनवरी 2011

ग़ज़ल : ग़ज़ल पर ग़ज़ल क्या कहूँ मैं

बहर : फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
बहरे मुतकारिब मुसद्दस सालिम

ग़ज़ल पर ग़ज़ल क्या कहूँ मैं
यही बेहतर चुप रहूँ मैं

तेरे रूप की धूप गोरी
तेरे गेसुओं से सहूँ मैं

न तेजाब है ना अगन तू
तुझे छूके फिर क्यूँ दहूँ मैं

न चिंता मुझे दोजखों की
जमीं पर ही जन्नत लहूँ मैं

जो दीवार बन तुझको रोकूँ
कसम मुझको फौरन ढहूँ मैं

तेरे प्यार की धार में ही
मरूँ या बचूँ पर बहूँ मैं

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