बहर : फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
बहरे मुतकारिब मुसद्दस सालिम
ग़ज़ल पर ग़ज़ल क्या कहूँ मैं
यही बेहतर चुप रहूँ मैं
तेरे रूप की धूप गोरी
तेरे गेसुओं से सहूँ मैं
न तेजाब है ना अगन तू
तुझे छूके फिर क्यूँ दहूँ मैं
न चिंता मुझे दोजखों की
जमीं पर ही जन्नत लहूँ मैं
जो दीवार बन तुझको रोकूँ
कसम मुझको फौरन ढहूँ मैं
तेरे प्यार की धार में ही
मरूँ या बचूँ पर बहूँ मैं
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
बहुत ही सुंदर रचना.......
जवाब देंहटाएंगाजियाबाद से एक यलो एक्सप्रेस चल रही है जो आपके ब्लाग को चौपट कर सकती है, जरा सावधान रहे।
जवाब देंहटाएंbahut badiya.. likhte rahiye..
जवाब देंहटाएंPlease visit my blog..
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वाह वाह वाह, बहुत खूब धर्मेन्द्र भाई
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