इस मौसम में हरदम मेरा दिल जलता रहता है।
पाँव तुम्हारा चूम चूम कर
धान मुँआँ पकता है
छूकर तेरी कमर
बाजरा लहराता फिरता है
तेरे बालों से मक्का
रेशम चोरी करता है
तेरा अधर चूमने को,
गन्ना रस से भरता है;
सरपत पकड़ दुपट्टा तेरा खींचतान करता है।
बारिश ने जबरन तेरा
यह कोमल गात छुआ है
उस पर मेरा गुस्सा
अब तक ठंढा नहीं हुआ है
तिस पर जाड़ा मेरा
दुश्मन बन आने वाला है
तुझको कंबल से ढक
घर में बिठलाने वाला है;
इतने दिन बिन देखे मर जाऊँगा ये लगता है।
कबसे सोच रहा था अबके
क्वार तुझे मैं ब्याहूँ
तेरे तन के फूलों में निज
मन की महक मिलाऊँ
नन्हीं नन्हीं कलियों से
घर, आँगन, बाग सजाऊँ
पर पत्थर-दिल पागल
आदमखोरों से डर जाऊँ
गए दशहरे कई जाति का रावण ना मरता है।
वह कौन सा मौसम है जिसमें आपका दिल नहीं जलता है, सुंदर गीत
जवाब देंहटाएंवाह भाई धर्मेन्द्र जी श्रुंगार रस, बाजरा, बारिश, गन्ना और न जाने क्या क्या......... भई वाह.......... दिल गार्डेन गार्डेन हो गया|
जवाब देंहटाएंबिम्बों का उत्तम प्रयोग। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएंफ़ुरसत में .... सामा-चकेवा
विचार-शिक्षा
पर पत्थर-दिल पागल
जवाब देंहटाएंआदमखोरों से डर जाऊँ
गए दशहरे कई जाति का रावण ना मरता है।
वाह! क्या खूब अन्दाज़ है प्रेम रस मे पगी कविता आखिरी मे एक सवाल भी छोड गयी…………जो सोचने को भी मजबूर करती है।