यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण।
तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को /
कम कर देता है समय की गति /
इसे कैद करके नहीं रख पातीं /
स्थान और समय की विमाएँ।
ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में /
ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक /
जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती।
इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
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बुधवार, 17 नवंबर 2010
बस इतना अधिकार मुझे दो
नहीं चाहता साथ तुम्हारे नाचूँ, गाऊँ, झूमूँ, घूमूँ नहीं चाहता तुमको देखूँ, छूँलूँ, कसलूँ या फिर चूमूँ
नहीं चाहता तुम अपना जीवन दो या फिर प्यार मुझे दो अंत समय चंदन बन जाऊँ बस इतना अधिकार मुझे दो
आने वाले समय में जिन पक्तियों का सन्दर्भ दिया जाएगा विद्यार्थियों को, उन में शामिल होने की कुव्वत रखने वाली पंक्तियों के रचियता भाई धर्मेन्द्र जी हमारी बधाई स्वीकार करें|
kya kahu.. bhaiyaa naman aapki lekhni ko. is kavita ne meujhe aisa hi kuch likhne par mazbor kar diya hai .. main aapki antim panktiyo ko apni kisi kavita me use karunga, bura nahi maanna ji
सुंदर निर्मल भाव.
जवाब देंहटाएंआने वाले समय में जिन पक्तियों का सन्दर्भ दिया जाएगा विद्यार्थियों को, उन में शामिल होने की कुव्वत रखने वाली पंक्तियों के रचियता भाई धर्मेन्द्र जी हमारी बधाई स्वीकार करें|
जवाब देंहटाएंअंत समय चंदन बन जाऊँ
जवाब देंहटाएंबस इतना अधिकार मुझे दो
वाह वाह वाह वाह्…………इन दो पंक्तियों ने गज़ब कर दिया। दिल मे समा गयीं हैं। बार बार पढा।
अदभुद कविता..
जवाब देंहटाएंdharmendra bhai
जवाब देंहटाएंkya kahu..
bhaiyaa
naman aapki lekhni ko. is kavita ne meujhe aisa hi kuch likhne par mazbor kar diya hai .. main aapki antim panktiyo ko apni kisi kavita me use karunga, bura nahi maanna ji
aapka
vijay
poemsofvijay.blogspot.com
"अंत समय चंदन बन जाऊँ
जवाब देंहटाएंबस इतना अधिकार मुझे दो"
बेहद खूबसूरत !